जिसकी दृष्टि सम्यक् है, वह सदा अमूढ़ होता है
चन्दन के वृक्ष से सॉंप लिपटे रहते हैं; फिर भी वह विषैला नहीं बनता| उसी प्रकार सज्जन भले ही दुर्जनों से घिरा रहे, दुर्जनता उसमें प्रविष्ट नहीं हो सकती|
जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है, वह सर्वत्र सम्यक् ही देखता है और सम्यक् ही ग्रहण करता है| दुष्टों में भी वह कोई न कोई गुण ढूँढ ही लेता है और उसे अपना लेता है| फिर शिष्ट पुरुषों या सज्जनों की बात ही क्या?
आपने उस महात्मा के बारे में तो सुना ही होगा, जो कहता था कि मैंने मूर्खों से ही सबकुछ सीखा है, क्यों कि वे जैसा करते हैं, वैसा मैं नहीं करता| महात्मा सम्यग्दृष्टि था, इसलिए वह मूर्खों से भी अच्छी शिक्षा ले सका| अन्यथा (मिथ्यादृष्टि होता तो) वह ज्ञानियों से भी बुरी बातें ही सीखता|
सम्यग्दृष्टि कभी किंकर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होता| वह सदा अमूढ़ (विवेकी) ही रहता है|
- दशवैकालिक सूत्र 10/7
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