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आलोचना-प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध बनी पुष्पचूला

आलोचना प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध बनी पुष्पचूला
पुष्पभद्र नगर में पुष्पकेतु नाम का राजा था| उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी| उसने पुष्पचूल और पुष्पचूला नाम के युगल को जन्म दिया| पुष्पचूल और पुष्पचूला परस्पर अत्यन्त प्रेम से बड़े हुए| दोनों एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे| अब राजा विचार करने लगा कि यदि पुत्री पुष्पचूला का विवाह अन्यत्र करूँगा, तो दोनों का वियोग हो जाएगा| अतः उसने प्रजाजनों की सभा बुलाई| सभा में पुष्पकेतु राजाने प्रश्‍न किया कि अगर मेरी धरती पर रत्न उत्पन्न हो जाये, तो उसे कहॉं जोड़ना, यह अधिकार किसका है?

प्रजा ने उत्तर दिया कि, उत्पन्न हुए रत्न को जोड़ने का अधिकार आपको ही है| राजा ने घोषणा की-कि मैं इस पुत्ररत्न व पुत्रीरत्न को शादी द्वारा जोड़ता हूँ| इस प्रकार कपट से प्रजाजनों की सम्मति लेकर उनका परस्पर विवाह कर दिया| इस प्रकार के अन्याय से पुष्पवती के ह्रदय को गहरी चोट लगी| वैराग्य आने से उसने दीक्षा ले ली| मर कर देव बनी| पुष्पकेतु राजा भी कालांतर में परलोक में चला गया|

आलोचना प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध बनी पुष्पचूला
भाई-बहन पति-पत्नी बन कर काल व्यतीत करने लगे| इतने में तो उस देव (मातुश्री के जीव) ने अपने अवधिज्ञान से देखा और मन में विचार किया कि ये दोनों पूर्वभव में मेरे पुत्र-पुत्री थे और अब इस प्रकार के अनैतिक वैषयिक पाप से वे नरक में जायेंगे| अतः उनको सन्मार्ग पर लाने के लिए उस देव ने पुष्पचूला को रात्रि में नरक का स्वप्न दिखाया| उससे भयभीत बनी हुई पुष्पचूला ने सुबह जाकर राजा से बात कही| राजा ने नरक का स्वरूप जानने के लिए अन्य दर्शनों के योगियों को बुलाया| उन्होंने कहा-‘‘हे राजन् ! शोक, वियोग, रोग आदि की परवशता ही नरक का दुःख है|’’ पुष्पचूला ने कहा-‘‘मैंने जो नरक का स्वप्न देखा है, वह ऐसे दुःखों से सर्वथा भिन्न है, वैसे दुःखों का तो अंशमात्र भी यहॉं नहीं दिखता है|’’ तब जैनाचार्य अर्णिकापुत्र को बुला कर पूछा| उन्होंने यथावस्थित जैसे दुःख रानी ने स्वप्न में देखे थे, वैसे ही सातों नरक के भयंकर दुःखों का वर्णन किया|

आलोचना प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध बनी पुष्पचूला
उसके बाद देव ने देवलोक के सुख का स्वप्न दिखाया| पुष्पचूला ने दूसरे दर्शनकारों को बुलाकर उन्हें देवलोक का स्वरूप पूछा| वह सत्य जान न पायी| पुनः अर्णिकापुत्र आचार्य को बुलाकर पूछा, तो उन्होंने देवलोक का स्वरूप वैसा ही बताया, जैसा कि पुष्पचूला ने स्वप्न में देखा था| इससे वैराग्य पाकर चारित्र लेकर आलोचना-प्रायश्‍चित आदि से निरतिचार चारित्र का पालन कर वैयावच्च से उसी भव में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गई|

यहॉं विशेष विचारने जैसा हैं कि कारणवश भाई-बहन पति-पत्नी बन गये, परन्तु आलोचना प्रायश्‍चित करके चारित्र ग्रहण कर पुष्पचूला मोक्ष तक पहुँच गई| अतः हमे भी स्वयं को शुद्ध बनाने के लिए प्रायश्‍चित लेना चाहिए| हमने ऐसे घोर पाप तो किये ही नहीं हैं, अतः डरने का कोई कारण नहीं है| कदाचित् भयंकर पाप कर भी दिये हो, तो भी डरने की क्या आवश्यकता? प्रायश्‍चित लेने से उनकी आत्मा शुद्ध हो गई, तो क्या हमारी आत्मा शुद्ध नहीं होगी ? अरे जीव ! पाप करते हुए नहीं डरा, तो पापों की शुद्धि करने से क्यों डरता है?

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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