विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो
आत्महितैषी साधक अपने को विनय में स्थिर करे
यही बात अपनी आत्मा के विषय में भी समझी जा सकती है| आत्मा की अस्थिरता या स्थिरता भी उसके आधार पर अवलम्बित है| यदि हम उसे चञ्चल क्षणिक सुख देनेवाले विषयों पर – कषायों पर – दुर्व्यसनों पर – दुर्मनोवृत्तियों पर प्रतिष्ठित करते हैं; तो अवश्य ही वह अस्थिर रहेगी|
इसके विपरीत यदि हम उसे शास्त्रों में, धर्मकथाओं में और सद्गुणों में प्रतिष्ठित करते हैं; तो वह स्थिर रहेगी| जैसे सभी बुरी मनोवृत्तियों का मूल अभिमान है, वैसे सभी अच्छी मनोवृत्तियों का एवं सद्गुणों का मूल विनय है|
अतःज्ञानी कहते हैं कि जो साधक आत्मकल्याण के अभिलाषी हैं, उन्हें चाहिये कि वे अपनी आत्मा को विनय में स्थिर करें|
- उत्तराध्ययन सूत्र 1/6
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