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सद्गुण साधना

सद्गुण साधना

बाहाहिं सागरो चेव,
तरियव्वो गुणोदहिं

सद्गुण-साधना का कार्य भुजाओं से समुद्र तैरने के समान है

पहले नावों से समुद्र-यात्राएँ की जाती थीं| अब बड़े-बड़े जहाज बन गये हैं, जिनमें बैठकर यात्री एक देश से दूसरे देश में आसानी से चले जाते हैं| जबसे वायुयान बनने लगे हैं, जलयानों का भी महत्त्व घट गया है| अब बीच में पड़नेवाले सुविशाल समुद्रों की भी पर्वाह न करके लोग वायुयानों के द्वारा ही परदेश जा पहुँचते हैं|

परन्तु यदि कोई वायुयान, जलयान या नाव का उपयोग न करके केवल अपनी भुजाओं के बल पर समुद्र को पार करना चाहे; तो क्या यह सम्भव होगा?

हो सकता है कि वीर सावरकर जैसे किसी कुशल तैराक के लिए यह भी सम्भव हो; परन्तु गुणरूपी समुद्र को पार करना अर्थात् समस्त सद्गुणों की साधना करना किसी भी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है| सर्वज्ञों या केवलज्ञानियों की बात दूसरी है| उनके अतिरिक्त, समस्त व्यक्ति छद्मस्थ कहलाते हैं| इसका तात्पर्य यही है कि सारे गुण किसी छद्मस्थ पुरुष में नहीं होते| कोई-न-कोई दोष प्रत्येक में पाया जाता है|

- उत्तराध्ययन सूत्र 16/37

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