बाहाहिं सागरो चेव,
तरियव्वो गुणोदहिं
तरियव्वो गुणोदहिं
सद्गुण-साधना का कार्य भुजाओं से समुद्र तैरने के समान है
परन्तु यदि कोई वायुयान, जलयान या नाव का उपयोग न करके केवल अपनी भुजाओं के बल पर समुद्र को पार करना चाहे; तो क्या यह सम्भव होगा?
हो सकता है कि वीर सावरकर जैसे किसी कुशल तैराक के लिए यह भी सम्भव हो; परन्तु गुणरूपी समुद्र को पार करना अर्थात् समस्त सद्गुणों की साधना करना किसी भी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है| सर्वज्ञों या केवलज्ञानियों की बात दूसरी है| उनके अतिरिक्त, समस्त व्यक्ति छद्मस्थ कहलाते हैं| इसका तात्पर्य यही है कि सारे गुण किसी छद्मस्थ पुरुष में नहीं होते| कोई-न-कोई दोष प्रत्येक में पाया जाता है|
- उत्तराध्ययन सूत्र 16/37
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