भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है
वैसे देखा जाय तो इंद्रियॉं विषयों का भोग भले ही करें, वे तृप्त नहीं होतीं| इंद्रियों के माध्यम से विषयों का भोग करके मन ही तृप्ति का अनुभव करता है, सो भी केवल क्षणभर के लिए!
परंतु आश्चर्य की बात यह है कि मन की इस क्षणिक तृप्ति के लिए जीव भोगी बन कर कोल्हू के बैल की तरह संसार की चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकता रहता है – जन्म, जरा एवं मृत्यु के चक्कर में फँसा रहता है|
इससे मुक्त वह होता है, जो अभोगी होता है – भोगों का त्यागी होता है – भोगों से निर्लिप्त रहता है – भोगों की वासना नहीं रखता| वासना ही संसार में भटकाने वाली दुर्भावना है| जब तक जिसमें विषयों के प्रति आसक्ति रहती है, तब तक वह संसार में भटकता है| अभोगी नहीं भटकता|
- उत्तराध्ययन सूत्र 25/41
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