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स्नेह और तृष्णा

स्नेह और तृष्णा

वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि,
तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिन्दइ

वीतरागता से स्नेह औ तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं

द्वेष दुर्गुण है – त्याज्य है| द्वेष का विरोधी राग है; फिर भी राग एक दुर्गुण है और वह भी द्वेष की तरह ही त्याज्य है|

हम किसी से द्वेष क्यों करते हैं ? इसलिए कि हमें किसी अन्य से राग होता है| उदाहरण के लिए हम भोजन को ले सकते हैं| दुर्गन्धित बासी भोजन से हमें द्वेष इसलिए होता है कि हमारे हृदय में सुगन्धित ताजा भोजन के प्रति राग होता है|

यही बात प्रत्येक वस्तु के लिए – प्रत्येक व्यक्ति के लिए लागू होती है| कुछ व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के प्रति हमें द्वेष होता है; क्यों कि उन पर हमारा अधिकार नहीं होता और जिन पर हमारा अधिकार होता है, उनके प्रति हृदय में राग होता है|

व्यक्तियों के प्रति राग रखने से हम स्नेह के बन्धन में फँस जाते हैं और वस्तुओं के प्रति राग रखने से हम तृष्णा के बन्धन में फँस जाते हैं| वीतराग बनने से अर्थात् वीतरागता की साधना करने से स्नेह और तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं|

- उत्तराध्ययन सूत्र 26/45

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