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श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म

श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म

दुविहे धम्मे-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव

धर्म के दो रूप हैं – श्रुतधर्म (तत्त्वज्ञान) और चारित्रधर्म (नैतिकता)

जब कोई मॉं यह चिल्लाती है – शिकायत करती है कि बेटा मेरी सुनता ही नहीं है तो क्या वह बेटे के बहरेपन का रोना रोती है? क्या उस पुत्र के कान नहीं है? क्या उसके कानों में सुनने की शक्ति नहीं है? यह सब है ही; परन्तु मॉं की उस शिकायत का अर्थ यह है कि जो कुछ मैं कहती हूँ, उसके अनुसार बेटा करता नहीं है| क्यों कि जैसा सुनता है, वैसा करता नहीं है – इसलिए कह दिया जाता है कि सुनता नहीं है|

व्यवहार की यह बात धार्मिक जीवन में भी लागू होती है| शास्त्रों का या गुरुओं के उपदेश का श्रवण करना भी एक कर्त्तव्य है और उस उपदेश के अनुसार कार्य करना भी| इस प्रकार धर्म के दो प्रकार हो जाते हैं- पहला श्रुतधर्म है और दूसरा चारित्र-धर्म|

मन तो सदा विषयों की ओर भागता है; इसलिए मन की बात न सुनकर हमें गुरुओं की बात सुननी चाहिये जिससे कि जीवन पवित्र हो – आचरण शुद्ध हो| इस प्रकार दोनों उपादेय हैं – श्रुतधर्म भी और चारित्रधर्म भी|

- स्थानांग सूत्र 2/1

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