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संग्रह न करे !

संग्रह न करे !

बहुं पि लद्धुं न निहे

अधिक प्राप्त होने पर भी संग्रह नहीं करना चाहिये

पानी का एक जगह संग्रह हो जाये और उसे इधर-उधर बहने का अवसर न मिले; तो वह पड़ा-पड़ा सड़ने लगता है| धन का भी यही हाल होता है| यदि वह अधिक मात्रा में एकत्र हो जाये जो उसे सुरक्षित रखने की चिन्ता सिर पर सवार हो जाती है| कुटुम्बी, चोर, डाकू सभी उसके पीछे लग जाते हैं और छीनने की कोशिश करते हैं|

पानी का उपयोग यही है कि उससे अपनी और दूसरों की प्यास बुझाई जाये; उसी प्रकार धन का भी उपयोग यही है कि उससे अपनी और दूसरों की आवश्यकताएँ पूरी की जायें| दूसरों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए जो धन दिया जाता है – दूसरों में बॉंटा जाता है, उसे दान कहते हैं| दान से पुण्य का लाभ होता है| परोपकार में धन लगाने से धर्म का लाभ होता है|

ज्ञानियों के अनुसार आत्मकल्याण के लिए यह आवश्यक है कि अधिक धन एकत्र हो जाने पर हम उसका त्याग करते रहें, पर कभी संग्रह न करें|

- आचारांग सूत्र 1/2/5

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