अमहग्घए होइ हु जाणएसु
वैडूर्यरत्न के समान चमकने वाले काच के टुकडे का, जानकारों के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं है
इसी प्रकार विषयभोग से भी सुख मिलता है और आत्मरमण से भी; परन्तु दोनों में कितना अधिक अन्तर है ! एक क्षणिक सुख है तो दूसरा शाश्वत ! अध्यात्म-विद्या के विशेषज्ञ दोनों सुखों का अन्तर समझ लेते हैं और केवल शाश्वत सुख पाने का प्रयास करते हैं|
क्षणिक सुख अधिक आकर्षक होता है और तत्काल प्रत्यक्ष मिलता है, इसलिए साधारण व्यक्ति उसीको वास्तविक सुख मान कर उसके लिए साधन एकत्र करने में जीवन भर लगे रहते हैं| इस प्रकार अपना जीवन व्यर्थ खो देते हैं| ज्ञानी ऐसा नहीं करते|
वैषयिक सुख भी आध्यात्मिक सुख के समान सुन्दर लगता है; परन्तु सम्यग्ज्ञानियों के समक्ष उसका कुछ भी मूल्य नहीं है| काच का टुकडा भी वैडूर्य रत्न के समान चमकता है; परन्तु जौहरियों के समक्ष उसका कुछ भी मूल्य नहीं है|
-उत्तराध्ययन सूत्र 20/42
Very true & beautifully presented!!!