मुच्छा परिग्गहो वुत्तो
मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है
निष्परिग्रही भगवान महावीर स्वामी ने परिग्रह के तीन प्रकार बतलाये हैं – उपकरण परिग्रह, कर्म परिग्रह और शरीर परिग्रह|
परिग्रहविरमणव्रत अंगीकार करनेवाले साधक को परिग्रह का त्याग आवश्यक नहीं है और न वह सम्भव ही है| केवलज्ञानी अरिहन्त के भी चार कर्म बाकी रहते हैं और शरीर तो अन्तिम सॉंस तक रहता ही है; इसलिए सर्वथा परिग्रहरहित तो केवल सिद्धदेव ही होते हैं|
फिर भी साधक सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणि का संकल्प करता है – प्रतिज्ञा करता है; तो उसका आशय यही है कि उपकरणों को सीमित किया जाये, घाती कर्मों का त्याग किया जाये एवं उपकरण, कर्म तथा शरीर तीनों पर मूर्च्छा बिल्कुल न रखी जाये; क्यों कि मूर्च्छा या ममता को ही वास्तव में परिग्रह कहा गया है|
- दशवैकालिक सूत्र 6/21
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