पीठ का मांस नहीं खाना चाहिये अर्थात् किसी की निन्दा उसकी अनुपस्थिति में नहीं करनी चाहिये
किसीके मुँह पर उसके दोष बताना अपनी निर्भयता का या साहस का कार्य है; परन्तु दोष बताते समय एकान्त होना चाहिये| यदि हम अन्य लोगों के बीच में किसी के दोष बताते हैं तो वह क्षोभजनक निन्दा बन जाती है| उसमें दोषी को सुधारने की हितैषितापूर्ण मनोवृत्ति के स्थान पर उसे अपमानित करके अपने अहंकार का पोषण करने की द्वेषपूर्ण मनोवृत्ति काम करने लगती है| यह बुरी बात है| सुधारने के लिये यह आवश्यक है कि हम दोषी के दोष एकांत में मधुर शब्दों के द्वारा बतायें| इससे वह दोषों को छोड़ने का और अपने आपको सुधारने का प्रयास कर सकता है|
किसी की अनुपस्थिति में उसकी निन्दा करना तो भयंकर पाप है – पीठ का मांस खाने के समान है; इसलिए सर्वथा त्याज्य है|
- दशवैकालिक सूत्र 8/47
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