जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ|
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ|
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ|
जो अभ्यन्तर को जानता है, वह बाह्य को जानता है और जो बाह्य को जानता है वह अभ्यन्तर को जानता है
इसी प्रकार दूसरों के सुख-दुःख को जाननेवाला अपने सुख-दुःख को जानता है अर्थात् पराये सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझता है| ऐसी ही व्यक्ति में दयालुता या सहानुभूति का निवास होता है| पड़ौसी के पॉंव में कॉंटा चुभने की बात सुनते ही ऐसा व्यक्ति उसे निकालने के लिए सुई लेकर दौड़ पड़ेगा, मानो स्वयं उसीके पॉंव में कॉंटा चुभा हो! कहा भी है – जा के पैर न फटी बिवाई| सो क्या जाने पीर पराई॥
- आचारांग सूत्र 1/14
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