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अदीनभाव से रहो

अदीनभाव से रहो

अदीणमणसो चरे
विनय गुण है; परन्तु दीनता दोष है| विनीत विवेकशील होता है| वह अपने से अधिक ज्ञानियों के सामने सदा नम्र रहता है, जिससे कि वह उनसे ज्ञान-लाभ पा सके| विनीत के सामने गुरु अपना हृदय खोल कर रख देता है| उसे विश्‍वास रहता है कि मेरा शिष्य ज्ञान पा कर भी मेरे प्रति नम्र बना रहेगा और जीवनभर मेरा उपकार मानता रहेगा, मेरी सेवा करता रहेगा, मेरा नाम उज्ज्वल करता रहेगा|

इसके विपरीत दीन शिष्य अविवेकी होता है| वह अपने को सदा तुच्छ ही समझता रहता है| हीन-मनोवृत्ति का शिकार होने से वह उति या प्रगति की आशा ही छोड़ बैठता है| गुरु यदि प्रेमपूर्वक उसे कुछ सिखाना चाहते हैं तो भी नहीं सीखता | वह घोर आलसी होता है| अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी उसका जीवन भारभूत होता है| दीन व्यक्ति ताड़ना-तर्जना भी नहीं सह सकता| बार-बार भूलें करके भी लज्जित नहीं होता| ‘‘मैं कुछ नहीं कर सकता !’’ बस यही विचार उसके मन में सवार रहता है| इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि यदि तुम्हें उति करनी हो तो अदीनभाव से रहो|

-उत्तराध्ययन सूत्र 2/3

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