अदीणमणसो चरे
इसके विपरीत दीन शिष्य अविवेकी होता है| वह अपने को सदा तुच्छ ही समझता रहता है| हीन-मनोवृत्ति का शिकार होने से वह उति या प्रगति की आशा ही छोड़ बैठता है| गुरु यदि प्रेमपूर्वक उसे कुछ सिखाना चाहते हैं तो भी नहीं सीखता | वह घोर आलसी होता है| अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी उसका जीवन भारभूत होता है| दीन व्यक्ति ताड़ना-तर्जना भी नहीं सह सकता| बार-बार भूलें करके भी लज्जित नहीं होता| ‘‘मैं कुछ नहीं कर सकता !’’ बस यही विचार उसके मन में सवार रहता है| इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि यदि तुम्हें उति करनी हो तो अदीनभाव से रहो|
-उत्तराध्ययन सूत्र 2/3
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