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दुर्लभ श्रद्धा

दुर्लभ श्रद्धा

श्रद्धा परमदुल्लहा

श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है

धर्म पर श्रद्धा हो तो मनुष्य स्वार्थ का विचार किये बिना भी अपने कर्तव्य पर आरूढ़ हो सकता है| परन्तु यह श्रद्धा हो कैसे ? उसका आचार क्या हो ?

कुछ लोग श्रद्धा को परम्परा पर आधारित करते हैं | वे कहते हैं, हम अमुक बात इसलिए मानते हैं कि वह हमारे शास्त्रों में लिखी है अथवा हमारे पुरखे भी उसे उसी रूप में मानते रहे हैं| श्रद्धा का यह आधार ठीक नहीं है| इसमें धोखा हो सकता है| व्यक्ति सत्य से वञ्चित रह सकता है|

दूसरा आधार है – विवेक| क्या अच्छा है – क्या बुरा है; इसका निर्णय करना ही विवेक है| विवेक के बाद सम्यक् पर विश्‍वास और मिथ्या पर अविश्‍वास किया जाना चाहिये| इस प्रकार जो विश्‍वास विवेक पर आधारित होगा, वह अत्यन्त पक्का होगा – स्थायी होगा – वास्तविक होगा|

एक मित्र पर अथवा किसी सिद्धान्त पर भी हम तभी विश्‍वास करते हैं, जब उसे सम्यक् प्रकार से जान लेते हैं| यही बात धर्म के लिए भी लागू होती है| जब तक उसे जान न लिया जाये; तब तक उस पर श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ रहेगी|

- उत्तराध्ययन सूत्र 3/6

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