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कर्त्ता – भोक्ता

कर्त्ता   भोक्ता

अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण या सुहाण च

आत्मा ही सुख दुःख का कर्त्ता और भोक्ता है

सुख और दुःख अपने ही कार्यों एवं विचारों के फल हैं; दूसरों के नहीं|

हम अच्छे कार्य करते हैं; तो अपने लिए सुख का निर्माण करते हैं और यदि बुरे कार्य करते हैं; तो दुःख का निर्माण करते हैं| इस प्रकार हम स्वयं ही सुख-दुःख के निर्माता हैं, बनाने वाले हैं|

फिर अपने निर्मित सुख – दुःख का हम स्वयं ही भोग करते हैं; इसलिए उनके भोक्ता भी हम ही हैं|

निर्माण अलग गुण है और भोग अलग| हो सकता है कि कोई व्यक्ति रोटी बनाये; पर उसे न खाये, फैंक दे| अपने अच्छे कार्यों से अच्छी और सुखद परिस्थिति का निर्माण हो जाता है| फिर भी हो सकता है कि व्यक्ति अपने अवशिष्ट अभावों का स्मरण करके रोता रहे| इसी प्रकार अपने बुरे कार्यों से दुःखद या प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करके भी आंशिक सफलता के स्मरण से हँसता रहे|

इस प्रकार आत्मा अपने सुख – दुःख का स्वयं कर्ता भी है और भोक्ता भी|

- उत्तराध्ययन सूत्र 20/37

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