ममत्तं छिंदए ताए, महानागोव्व कंचुयं
आत्मसाधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके; जैसे महानाग कञ्चुक को उतार देता है
उसी प्रकार आत्मकल्याण का साधक भी कुटुम्ब, मकान बहुमूल्य वस्त्रालंकार आदि की ममता को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है – प्रव्रजित हो जाता है|
प्रव्रजितावस्था में भी अनेक वस्तुओं से उसका सम्पर्क आता है| सम्पर्क में आनेवाली वस्तुओं से उसे राग हो जाता है – ममता हो जाती है| सादे वस्त्रों और भिक्षा के लिए बने हुए साधारण काष्ठ के पात्रों में भी उसकी ममता दिखाई देती है| इतना ही नहीं, व्यक्तियों के प्रति भी उसके हृदय में ममता उत्पन्न हो जाती है| सम्पर्क में रहनेवाले गुरुदेव हो या शिष्यगण – सबको वह अपना समझने लगता है| ममता का यह बन्धन साधना में बाधक होने से त्याज्य है|
- उत्तराध्ययन सूत्र 16/87
superb website for everyone who really want to understand jainism.