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राग द्वेष का क्षय

राग द्वेष का क्षय

रागस्स दोसस्स य संखएणं
एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं

राग-द्वेष के क्षय से जीव एकान्तसुखस्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है

राग अपने को रुलाता है और द्वेष दूसरों को | रोना किसे अच्छा लगता है ? किसीको नहीं; तब भला रुलाना क्यों अच्छा लगना चाहिये ? हँसने-हँसाने में अर्थात् स्वयं प्रसन्नचित्त रहने और दूसरों को प्रसन्नता वितरित करने में ही जीवन की सफलता निहित है|

जीवन की इस सफलता के मार्ग में राग और द्वेष सबसे बड़े रोड़े हैं, जिन्हें हटाना जरूरी है| राग से हमें अपने दोष नहीं दीखते और द्वेष से दूसरों के गुण नहीं दिखते| इस प्रकार राग के कारण हम अपना सुधार नहीं कर पाते और द्वेष के कारण दूसरों से सद्गुण सीख नहीं पाते|

इसलिए रागद्वेष का जितना भी हो सके क्षय करने का भरपूर प्रयास करना चाहिये| रागद्वेष के क्षय से ही मोक्ष प्राप्त होता है – वह मोक्ष, जो एकान्त सुखस्वरूप है अर्थात् जिसमें सुख ही सुख है – शाश्‍वत सुख है; दुःख का सर्वथा अभाव है! क्या हम ऐसा प्रयास नहीं करेंगे?

- उत्तराध्ययन सूत्र 32/2

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