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सन्तोषी पाप नहीं करते

सन्तोषी पाप नहीं करते

सन्तोसिणो नो पकरेंति पावं

सन्तोषी पाप नहीं करते

लोभ पाप का मूल कारण है| ज्यों-ज्यों व्यक्ति लाभान्वित होता जाता है, त्यों-त्यों वह अधिक से अधिक पापमार्ग में प्रवृत होता जाता है; क्यों कि लाभ के अनुपात में उसका लोभ बढ़ता रहता है, जो अनुचित एवं अन्यायपूर्ण कार्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करता रहता है|

लोभ एक आग है, जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदयको जलाती रहती है| आग में कितना भी ईन्धन क्यों न डाला जाये वह कभी तृप्त नहीं होगी| लोभ की भी चाहे जितनी पूर्ति की जाय, वह कभी तृप्त नहीं होगा| जिसके पास नौ रुपये हैं, वह सोचेगा कि पूरे दस हो जायें तो अच्छा| जिसके पास निन्यानवे रुपये हैं, वह सोचेगा कि एक और मिल जाये और पूरे सौ रुपये हो जायें तो अच्छा | इसी प्रकार लखपति करोड़पति होना चाहता है और करोड़पति अरबपति| इसीको निन्यानवे का चक्कर कहते हैं| इस चक्कर में जो फँस जाता है, वही पाप करता है|

इसके विपरीत जो इस चक्कर में नहीं फँसा है – जो धर्मात्मा है- लोभी नहीं है, वह पाप क्यों करेगा? ज्ञानियों ने ठीक ही कहा है कि संतोषी पाप नहीं करते|

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/12/95

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