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प्रशंसा से मोह

प्रशंसा से मोह

कसोक्खेहिं सद्देहिं पेमं नाभिनिवेसए

कानों को सुख देने वाले (मधुर) शब्दों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिये

यदि हम अच्छे काम करेंगे तो लोग हमारी प्रशंसा करेंगेही| प्रशंसा के शब्द बहुत मीठे लगते हैं – कानों को प्रिय लगते हैं; परन्तु कर्णप्रिय शब्दों में हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिये, अन्यथा सम्भव यही है कि हम धूर्तों से धोखा खा जायें|

प्रशंसा झूठी भी की जा सकती है| चाटुकार या खुशामदी टट्टुओं का यही मुख्य कार्य होता है| वे झूठी प्रशंसा से दूसरों का मन प्रसन्न करके अपना उल्लू सीधा करते हैं – अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं|

यही कारण है कि कानों को प्रिय लगनेवाले प्रशंसा के मधुर शब्दों के प्रति आसक्त रहनेवाला व्यक्ति सदा सर्वत्र चापलूसों से घिरा रहता है और उनके शब्दों को – उनकी प्रशंसा को दुनिया की या समाज की प्रशंसा समझकर घमंड में फूला रहता है| इस प्रकार धोखा खाता है और अपने जीवन को निष्फल बनाता है|

ऐसे ही व्यक्तियों को प्रतिबोध देते हुए ज्ञानियों ने कहा है; कि कर्णप्रिय शब्दों के प्रति आसक्ति न रखें – प्रशंसा से मोह न रखें|

- दशवैकालिक सूत्र 8/26

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