जो अणण्णदंसी से अणण्णारामे
जो अनन्यदर्शी होता है, वह अनन्याराम होता है और जो अनन्याराम होता है, वह अनन्यदर्शी होता है
जो ‘पर’ में अर्थात् अजीव या जड़ पदार्थों में सुख की खोज नहीं करता, वह अनन्याराम कहलाता है – ऐसा व्यक्ति अन्यत्र दृष्टि न रखने से अनन्यदर्शी है|
इस प्रकार अनन्यदर्शी और अनन्याराम की परिभाषाएँ उन्हें अभि बनाती हैं| जिस साधक को आध्यात्मिक सुख का स्वाद आ जाता है, वह बाह्य सुख की परवाह नहीं करता ! जिसे अमृत का स्वाद आ जाता है, वह दूध की कामना क्यों करेगा?
परन्तु आध्यात्मिक सुख हर-एक व्यक्ति को सहज सुलभ नहीं है| उसे पाने के लिए अन्तर्मुखी बनना आवश्यक है| यदि हम अनन्याराम बनना चाहें तो पहले अनन्यदर्शी बनें !
- आचारांग सूत्र 1/2/6
BEAUTIFUL……..
Know Thyself and you will be free.