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मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ

एगे अहमसि, न मे अत्थि कोई,
न वाऽहमवि कस्स वि

मैं अकेला हूँ – मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ

यह संसार एक महान सरोवर की तरह है, जिसमें तिनकों की तरह प्राणी इधर-उधर से बहकर आते हैं, मिलते हैं, कुछ समय साथ रहते हैं और हवा का झोंका लगते ही (मृत्यु का धक्का लगते ही) पुनः इधर-उधर बिखर जाते हैं|

जैसे नदी पार करने के लिए एक नौका में कुछ व्यक्ति सवार होते हैं; परन्तु उस पार पहुँचते ही सब बिखर जाते हैं – अपनी-अपनी राह लगते हैं अथवा जैसे किसी रेल के डिब्बे में यात्री एक साथ बैठते हैं, पर अपनी-अपनी जगह आते ही उतर-उतर कर रवाना होते रहते हैं; वैसे ही संसार में विभिन्न व्यक्तियों का संयोग और वियोग होता रहता है| संयोग में हर्ष और वियोग में शोक अज्ञान का फल है|

अपने विरक्त-भावों की पुष्टि के लिए साधकों को यह सोचना चाहिये :- ‘मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ; क्योंकि मैं अकेला हूँ|’

- आचारांग सूत्र 1/8/6

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