जहा पुण्णस्स कत्थई, तहा तुच्छस्स कत्थई|
जहा तुच्छस्स कत्थई, तहा पुण्णस्स कत्थई|
जहा तुच्छस्स कत्थई, तहा पुण्णस्स कत्थई|
जैसे पुण्यवान को कहा जाता है, वैसे ही तुच्छ को और जैसे तुच्छ को कहा जाता है, वैसे ही पुण्यवान को
उपदेशक को समभावी बनना चाहिये| उपदेश कोई बेचने की वस्तु नहीं है कि जहॉं अधिक धन मिलता हो, वहीं उत्तम उपदेश दिया जाये और जहॉं कम धन मिले, वहॉं अच्छा उपदेश दिया जाये और जहॉं कम सन्मान मिले, वहॉं साधारण उपदेश से ही काम चला लिया जाये| सभी वर्ग के श्रोताओं के प्रति उपदेशक के समानभाव रहने चाहिये|
- आचारांग सूत्र 1/2/6
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