पक्षं कञ्चन नाश्रयेत्
परस्पर एक दूसरे को समझे बिना एक दूसरे को सहे बगैर सह- जीवन संभावित नहीं हो सकता|
अपने आप से प्रश्न कीजिए कि मैं किसी के अनुसार जीवन को ढाल सकता हूँ ? यदि नहीं तो फिर औरों से यह अपेक्षा क्यों रखनी चाहिए… कि वे हमारी इच्छा के मुताबिक जिएं?
मन को निराग्रही बनाकर तो साथ जिया जा सकेगा| दुराग्रही व्यवहार से हम कठोरतम होते जा रहे हैं ऐसे में न किसी की सहानुभूति टिकती है न कोई स्थायी-मधुर सम्बन्ध बनता है|
यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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