न यावि पूयं, गरिहं च संजए
जो पूजा पा कर भी अहंकार नहीं करता और निन्दा पाकर भी अपने को हीन नहीं मानता; वह संयत महर्षि है
अहंकार दोष है; क्योंकि जो अपने को सबसे बड़ा समझ लेता है, उसकी उन्नति रुक जाती है| घमण्डी से अन्य सब लोग भी दूर रहना चाहते हैं; इसलिए वह न किसीसे मित्रता कर सकता है और न किसीसे मित्रता पा सकता है|
दीनता दोष है; क्योंकि जो अपने को दीन-हीन मान बैठता है, उसका भी सुधार या विकास कुण्ठित हो जाता है, ऐसा व्यक्ति सदा निराश और हताश रहता है|
निन्दा और प्रशंसा में क्षुब्ध होना भी दोष है, क्योंकि यदि निन्दा सच्ची है; तो हमें आत्मसुधार की उससे प्रेरणा मिलेगी, जो उपादेय है – और यदि निन्दा झूठी है; तो हमें उसकी उपेक्षा करनी चाहिये| इसी प्रकार प्रशंसा भी यदि सद्गुणों के कारण की गई हो; तो हमें अधिक से अधिक सद्गुणों की साधना करनी चाहिये और झूठी प्रशंसा की गई हो; तो उस पर उपेक्षावृत्ति रखनी चाहिये|
- उत्तराध्ययन सूत्र 21/20
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