post icon

साधकों का चक्षु

साधकों का चक्षु

से हु चक्खु मणुस्साणं,
जे कंखाए य अन्तए

जिसने कांक्षा (आसक्ति) का अन्त कर दिया है, वह मनुष्यों का चक्षु है

जिसने अपनी कामनाओं को वश में कर लिया है – जो अपनी इन्द्रियों के विषयों पर किञ्चित् भी आसक्ति नहीं रखता, वही पुरुष निरपेक्ष होता है – निष्पक्ष होता है – निःस्वार्थ होता है| और इसीलिए आध्यात्मिक-साधना करनेवालों को पथदर्शन करने का वह पूर्ण अधिकारी होता है| मुमुक्षु उसके मार्गदर्शन में चल सकते हैं और अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं| ऐसे व्यक्ति में न राग होता है, न द्वेष-न माया होती है, न ममता-न दैन्य होता है, न अभिमान-न कायरता होती है, न क्रूरता| वह पूर्ण समभावी होता है-सदाचारी होता है-उपदेशक होता है और होता है-मितभाषी|

उसका अन्तःकरण ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की पवित्र भावना से निरन्तर परिपूर्ण रहता है| आत्म-कल्याण के क्षेत्र में ठीक-ठीक मार्गदर्शन करने में सक्षम होने के कारण उस महापुरुष को हम ‘साधकों का चक्षु’ कह सकते हैं|

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/15/14

Did you like it? Share the knowledge:

Advertisement

No comments yet.

Leave a comment

Leave a Reply

Connect with Facebook

OR