जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे,
तस्संतिए वेणइयं पउंजे
तस्संतिए वेणइयं पउंजे
जिसके निकट रह कर धर्म के पद सीखे हों, उसके प्रति विनयपूर्ण व्यवहार रखना चाहिये
धर्मगुरुओं के निकट रह कर जिसने धर्मशिक्षा ग्रहण की हो, उसे उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहना चाहिये| अकृतज्ञ या उपकार न मानने वाला शिष्य कभी धर्मगुरुओं से पूरा लाभ नहीं पा सकता|
इसके विपरीत जब गुरुओं को यह विश्वास हो जाता है कि अमुक शिष्य कृतज्ञ है – विनीत है; तो उसके सामने वे अपना हृदय खोल कर रख देते हैं| जो कुछ वे जानते हैं, सब सिखाने को तत्पर हो जाते हैं|
अतः ज्ञानियों का कथन है कि धर्मशास्त्रों का उपदेश करने वाले उन धर्मगुरुओं के प्रति, जिनसे हमने धर्म के पद सीखे-समझे-हृदयङ्गम किये हों, हमें सदा विनयपूर्ण व्यवहार रखना चाहिये; क्यों कि ज्ञान की कुञ्जी ही है-गुरुविनय !
- दशवैकालिक सूत्र 6/1/12
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