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मन के जीते जीत

मन के जीते जीत

इमेण चेव जुज्झाहि,
किं ते जुज्झेण बज्झओ ?

आन्तरिक विकारों से ही युद्ध कर, बाह्य युद्ध से तुझे क्या लाभ?

कहावत है :- ‘‘लड़ाई में लड्डू नहीं बँटते !’’ इसका आशय यह है कि युद्ध में लाभ कुछ नहीं होता| दोनों पक्षों को हानि ही उठानी पड़ती है – एक को कुछ अधिक तो एक को कुछ कम| फिर युद्ध में ‘‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’’ वाली कहावत के अनुसार शक्तिशाली की विजय होती है और शक्तिशाली सदा न्यायपक्ष का हो – यह नियम नहीं है| अन्यायी और अत्याचारी भी शक्ति के बल पर युद्ध में विजय प्राप्त कर सकता है|

इसलिए अध्यात्मवादियों का कथन है कि मनुष्य को बाह्य युद्ध से बचना चाहिये| मनुष्य शान्ति चाहता है| युद्ध शान्ति का विरोधी है; इसलिए शान्तिप्रेमियों को युद्ध से दूर रहना ही उचित है|

परन्तु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार युद्ध एक मूल प्रवृत्ति है; इसलिए उससे सर्वथा दूर भी नहीं रहा जा सकता | ऐसी अवस्था में क्या किया जाये| अध्यात्मवादियों ने इसका बहुत सुन्दर उत्तर दिया है| उनके अनुसार व्यक्ति को अपने मन से युद्ध करना चाहिये, जिससे कि उसमें विकार पैदा न हो| कहा भी है- ‘‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत|’’

- आचारांग सूत्र 1/5/3

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