भाव : जैनो नी परिभाषाने अने साचा जैनत्वने समजावतु वर्णन
जैन कहो क्युं होवे, परमगुरु!
जैन कहो क्युं होवे
गुरु उपदेश बिना जन मूढा,
दर्शन जैन विगोवे.
कहत कृपानिधि शम-जल झीले,
कर्म-मेल जो धोवें,
बहुल पाप-मल अंग न धारे,
शुद्ध रूप निज जोवे.
स्याद्वाद पूरन जो जाने,
नयगर्भित जस वाचा;
गुण पर्याय द्रव्य जो बूझे,
सोइ जैन है साचा.
क्रिया मूढमति जो अज्ञानी,
चलत चाल अपूठी;
जैन दशा उनमें ही नाही,
कहे सो सबही जूठी.
परपरिणति अपनी कर माने,
किरिया गर्वे गहिलो;
उनकुं जैन कहो क्युं कहियें ,
सो मूरखमें पहिलो.
जैनभाव ज्ञानें सबमांही,
शिव साधन सद्दहिए;
नाम वेशषुं काम न सीझे,
भाव-उदासे रहीए.
ज्ञान सकल नय साधन साधो,
क्रिया ज्ञानकी दासी,
क्रिया करत धरतुं हे ममता,
याही गलेमें फांसी.
क्रिया बिना ज्ञान नहि कबहुं,
क्रिया ज्ञान बिनुं नाही;
क्रिया ज्ञान दोउ मिलत रहतुं है,
ज्यों जल-रस जलमांही.
क्रिया मगनता बाहिर दीसत,
ज्ञान शतक्त जस भांजे,
सद्गुरु शीख सुने नही कबहुं,
सो जन जनमें लाजे.
तत्त्व-बुद्धि जिनकी परिणति है,
सकल सूत्र की कूंची,
जग जसवाद वदे उनही को,
जैन दशा जस ऊंची.
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