महत्वपूर्ण बात यह है कि अनचाही-अप्रिय घटना घटें तब क्षमा कैसे रखें ? ऐसे समय पर क्षमा न रख सके और गुस्सा आ गया, मन बेकाबू हो गया और क्रोध में अंधा बनकर कुछ ऐसे गलत कदम उठा लिये कि जिससे होनेवाला नुकसान जीवनभरमें भरपाई न कर सकें और क्षमा मांगने-देने का मौका भी न आये| या तो क्षमा मांगने-देने पर भी वह नुकसान भरपाई न कर सके तो जीवनभर पछताना पड़ेगा|
इसलिए ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे प्रसंग पर क्रोध उत्पन्न ही न हो या तो उत्पन्न हुए क्रोध को निष्फल कर दो | क्योंकि क्रोध एक ऐसा पागलपन है कि क्रोधित व्यक्ति का हर कदम उसे नुकसान के मार्ग पर ही आगे ले जायेगा|
क्रोध वह अग्नि है| अग्निके संगसे पानी उबलता है और अस्थिर बनता है| अग्नि दूर होते ही पानी जैसे-जैसे ठंडा होने लगता है वैसे वैसे स्थिरता को प्राप्त करता है| बस ठीक उसी तरह क्रोधाग्नि के संगसे मन और बुद्धि अस्थिर बन जाते है और अस्थिर मन – या बुद्धि से जो भी कदम उठाया जाता है, वह आखिर तो हानिकारक ही सिद्ध होता है| जैसे जैसे समय व्यतीत होता है और क्रोध का निमित्त दूर होता है वैसे ही मन-बुद्धि शांत-शीतल बनकर स्थिरता को प्राप्त करतें हैं और तब जो प्रवृत्ति और बिचारधारा होती है वे प्रायः हितकारी होती हैं|
कोन्ट्रक्ट और एग्रीमेन्ट (असीशशाशपीं) में भी एक कानून-धारा को अत्यंत आवश्यक माना गया है कि ‘‘इस खतपत्रमें मैंने जो दस्तखत की है, वह स्वस्थ और स्थिर बुद्धि से की है|’’ इसलिए ही जब कोर्ट आदिमें ऐसा सिद्ध होता है कि … करारपत्री की एक पार्टी ने दस्तखत स्थिर और स्वस्थ बुद्धि से नहीं की, तब कोर्ट उस करार को योग्य न मानकर त्याग करने लायक मानती है|
इसलिए क्रोध और आवेश से दूर रहना चाहिए| जब ऐसा संवेदन होता हो कि क्रोध की गरमी मगज़ पर कब्ज़ा जमा रही है, तब तीन बात ध्यानमें रखना
१) ठंडा पानी सिर पर डालना या तो पीना|
२) उस स्थान को तत्काल छोड़ देना|
३) आईना सदा साथ में रखना|
जब क्रोध आ जाए तब आईने में देख लेना चाहिए कि मेरा सुंदर मुख क्रोध की आग में कितना विकृत हो गया है, तो जहॉंसे क्रोध की ज्वाला प्रकट हुई है, वह मेरी आत्मा तो कितनी कलुषित हुई होगी ? दर्पण में देखने से एक बात तो आपके दिलमें बैठ ही जाएगी कि – ‘‘यदि मुझे मेरा बाह्य और आभ्यंतर सौंदर्य को टिकाना हो, तो क्रोध को दूर से ही करोड़ो नमस्कार करने पड़ेंगे|’’
एक बात समझ लो कि वास्तवमें क्रोध की आग को धधकाने की ताकत बननेवाले प्रसंगमें नहीं है| कान में शूल डालने जैसे भयंकर प्रसंगमें भी भगवान महावीर स्वामी क्रोध की आगमें जले नहीं और द्रौपदी के मुँहसे निकले हुए ‘‘अँधे के पुत्र अँधे’’ मात्र इतने ही कटु शब्द सुनकर दुर्योधन के हृदय में ऐसा दावानल पैदा हुआ कि जिसने महाभारत का रूप लेकर संपूर्ण कुरुवंश को नष्ट कर दिया| बात यह है कि.. यहॉं घटना के साथ कोई लेना-देना नहीं है| घटनामें कहॉं प्रभाव है ? घटना तो वहीं समाप्त हो जाती है| शक्ति और प्रभाव घटना को देखने की दृष्टिमें हैं| घटना का मूल्यांकन किस तरह करें ? उस पर बिचार करने का तरीका ही घटना को प्रभावशाली बनाता है| संकीर्ण और उदार, क्षुद्र और अक्षुद्र, तुच्छ और गंभीर दृष्टिवालों की बिचार- धारामें जो द्वन्द्व हैं… उसका स्पष्ट अंतर ऐसे प्रसंग को लेकर ही प्रकट होता है| हम कितनी और कैसी घटनाओं तक स्वभावसे, हृदयसे, स्वस्थ और क्षमावान रह सकतें हैं ? उसके आधार पर हमारी क्षुद्रता या अक्षुद्रता का निर्णय हो जाता है|
४) भयानक आगमें खाक होने के बाद बाकी बचे हुए मकान को आप सदा नज़रके सामने रखिए| क्रोधकी आग के पश्चात् शायद हमारा अस्तित्व भी ऐसे अवशेष जैसा ही हो जाएगा, ऐसे बिचार आपको शीतल बनने में उपयुक्त हो सकेंगे|
५) अपने सोने, बैठने, जिमने के और दुकान या ओफिस के टेबल पर एक चिट्ठी चिपकाकर रखो ‘‘सावधान ! क्रोध राक्षस है’’ या ‘‘क्रोध ही शैतान है’’, ‘‘क्रोध तो आग है’’ ‘‘क्रोधसे स्वयं को ही नुकसान है’’, ‘‘व्यक्ति और प्रसंग तो योग्यता और भवितव्यता पर आधारित हैं, जब कि क्रोध तो मेरी मूर्खता पर आधारित है’’, ‘‘मुझे नुकसान अन्योंसे नहीं, क्रोधसे ही होगा’’, ‘‘क्रोध में आकर कुछ बोलने से पहले मुझे पानी पीना चाहिए|’’ ‘‘क्रोध को प्रकट करने से पहले मुझे सात नवकार गिनने चाहिए’’, ‘‘क्रोध आ रहा है, इस स्थान का त्याग कर देना चाहिए|’’ ‘‘बुद्धिमान मानव तो वह है कि जिस स्थान पर क्रोध नामका राक्षस आ रहा हो उस स्थानको त्याग कर भाग जाए|’’ ‘‘मेरा सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध है’’, ‘‘एक पल का क्रोध पूरी जिंदगी को बरबाद कर देता है’’ इत्यादि वाक्योमें से कोई भी एक वाक्य हमेशा नजर के सामने रखो|
पहले रानीवास में कोपभवन भी रहता था| रानी यदि कोई भी कारणवशात् क्रोधायमान हुई, तब अन्य कोई तुफान-धमाल किये बिना कोपभवनमें चली जाती थी| जिससे राजा समझ जाते थे कि रानी को क्रोध आया है और राजा रानी के क्रोध को दूर करने के प्रयत्नमें लग जाते थे| इससे सबसे महत्व का लाभ यह होता था कि एक रानी के क्रोध की दाह से अन्य कोई जलता नहीं था, बाहर नुकसान नहीं होता था| क्योंकि क्रोधी मनुष्य तो सामान्य से हनुमान की जलती पूँछ जैसा होता है, जो खुद तो जले और कंचनमय लंकाको भी जलाये| जब की क्रोध को गलत तरीके से व्यक्त करने के बजाय कोपभवनमें चले जाने से खुद क्रोध की आगमें जलते रहने पर भी उस आगसे बाहर कोई भी प्रकार का नुकसान नहीं होता है| इसलिए परिस्थिति शीघ्र ही बस में आ जाती है और पछताने का निमित्त भी नहीं आता है|
आप भी ऐसा कर सकते हो| घर-ओफिसमें एक ऐसा स्थान रखना चाहिए कि जहॉं किसीके जानेसे हि अन्य को ज्ञात हो जाए कि वह क्रोधमें है| बादमें अग्निके साथ किस तरह काम लेना है, वह सभी जानते ही हैं| ठीक उसी तरह क्रोधित के साथ कैसा व्यवहार-बर्तन करना चाहिए और उसको किस तरह शांत करना चाहिए वह सभी जानते ही हैं|
यदि ऐसा संभव न हो तो भी इतना तो अवश्य करना चाहिए कि आवेश के समय पर जो भी कार्य कर रहे हैं, उसे तुरंत रोक दे| (क्योंकि अस्वस्थ दिमाग से कोई भी काम सही तरह नहीं हो सकता) और माला लेकर नवकार गिनना शुरु कर देना चाहिए| हम जानते ही हैं कि सामान्य परिस्थितिमें भी मनकी चंचलता के कारण एकाग्र बनकर नवकार नहीं गिन सकते, तो क्रोधमें उद्भवित चंचलता के समय पर नवकार कैसे गिन सकते हैं ? (शायद उस अवसर पर नमो अरिहंताणं बोलते समय सचमुच क्रोध शत्रु के रूपमें दिखाई देने के स्थान पर जिसके निमित्तसे क्रोध की उत्पत्ति हुई, वह अपराधी शत्रुके रूपमें दिखाई देगा और उसको मारने का बिचार आ जाएगा| ‘‘नमो सिद्धाणं’’ बोलते समय शत्रुका भी शुद्ध सिद्ध स्वरूप नमस्कार करने योग्य है ऐसा बिचार आने के बदले वह कितना नालायक है ? ऐसा बिचार आएगा| ‘‘नमो आयरियाणं’’ बोलते समय पंचाचारयुक्त आचार्य के स्थान पर वह अपराधी के दुराचार ही नजर में आएगा| ‘‘नमो उवज्झायाणं’’ बोलते समय उपाध्याय भगवंत क्षमाभावमें कारणभूत शास्त्रज्ञानका दान करते हैं – ऐसी भावधारामें चढ़ने के बदले अपराधी को किस तरह से नसीहत दी जाए ? ऐसा बिचार आएगा और ‘‘नमो लोए सव्वसाहूणं’’ बोलते समय जिसकी सहनशक्ति आकाश की तरह अमर्यादित हैं, ऐसे साधु भगवंत के स्थान पर ‘‘आखिर तो मैं भी कब तक सहन करुँ ?’’ ऐसी व्याकुलता होगी|)
फिर भी नवकार गिनना चालु रखना चाहिए| नवकार के प्रभाव से मनमें अवश्यमेव शांति की अनुभूति होगी| जब तक मन शांत नही होगा तब तक कम से कम वाणी और काया पवित्र रहेगी और उन दोनों का सहकार नहीं मिलने से अपंग मन ज्यादा उछलकूद नहीं करेगा| अपने आप ही शांत हो जाएगा| इस तरह पंचसूत्र के प्रथम सूत्र का पाठ अवश्य कर्तव्य है| सामान्यसे तीन बार और संक्लेश में बार बार इस सूत्र का पाठ करनेवाला व्यक्ति हंमेशा टेन्शन, हाई इ.झ., डिप्रेशन जैसी बिमारीसे अवश्य बच सकता है|
ऐेसे समय पर घरमें गृहजिनालय और ओफिसमें परमात्मा की गोख हमारे लिए मनविश्रांति का एक स्थान बन सकती हैं| प्रभुके शरणमें जाकर सुंदर स्तवन-स्तुतियॉं भावसभर रीति से अलापनेसे मनको जो शांति की प्राप्ति होगी और हृदय को जो शाता मिलेगी वह अद्भुत होगी| अरे ! और कुछ न आता हो, क्लेश, संताप के कारण याद न आता हो, फिर भी सिर्फ भगवान की शांत-करुणासभर आँखोंसे आँखे मिलाकर बैठे रहो| आप महसुस करोगे कि कलुषित मन धीरे धीरे शांत हो रहा है, और नई नई संवेदनाओं का हृदयमें स्पंदन होने लगा हैं| हो सकता है कि उस समय आँखोंसे बहती हुई अश्रुधाराके साथ साथ सब संताप भी बह जाए| आप अवश्यमेव प्रसन्नता की अनुभूति कर सकेंगे| प्रभु जैसे उत्कृष्ट आप्तजन की ओर से मिले हुए उष्माभरे आश्वासन का यह अनुभव शब्दगोचर नहीं होगा और शुभभाव-लेश्या का वर्तमान में भी क्या प्रसन्नतादायक प्रभाव है उसकी अनुभूति होने पर आत्मोन्नति की शक्ति का निर्णय कर सकते हैं|
६) राजकुमारमें से चोर बने हुए वंकचूलने एक नियम लिया था कि क्रोधमें आकर प्रहार करने से पहले सात कदम पीछे हटना| भयानक क्रोध के समय पर भी इस नियममें अड़िग रहने से वंकचूल को लाभ ही हुआ क्यों कि बहन और पत्नीकी हत्याके पापसे ही नहीं – पछतावे के ताप से भी वह बच गया| क्रोधात्मक प्रक्रिया के एक छोर पर पागलपन है और दूसरे छोर पर पछतावा और सिर्फ पछतावा ही है| ‘‘क्रोधमें आकर मैंने यह सब क्या किया ?’’ हर बार क्रोध प्रकट होने के बाद अपने कलेजे को कुरेदनेवाला यह यक्षप्रश्न उठ खडा होता ही है| जिसका जवाब है, हृदयमें संताप और आँखोंमें आँसू| इसलिए ही क्रोध आते ही तुरंत कालविलम्ब के लिए सात नवकार का जप आदि का नियम करना चाहिए| इतना समय आपको तैयारी के लिए मिलेगा| जब क्रोध शत्रु प्रहार कर रहा हो, तब कालविलम्ब ही ढ़ाल है| सात नवकारादि के माध्यमसे जो कालविलम्ब होता हैं वह हमें क्रोधके आवेश के सामने स्वस्थ बनाने में समर्थ बनता हैं| यदि क्रोधका प्रथम प्रहार निष्फल हो गया तो समझ लो कि हम क्षमाकी बाज़ी जीत सकते हैं| इसलिए नियम करना चाहिए कि क्रोधित अवस्थामें कुछ भी कदम उठाने से पहले सात नवकार गिनना|
जिसकी भूल या अपराध हमें क्रोधाविष्ट करते हैं, उस व्यक्ति विशेषने हमारे पर किये हुए उपकार को याद कीजिए| उनके बड़े उपकार दिखाई दे तो प्रकट हुए क्रोधके भाव नष्ट हो जायेंगे| यहॉं चंडरुद्राचार्य के शिष्य का दृष्टान्त समझने योग्य है|
उस युवक की जिस दिन शादी हुई थी, उसी दिन वह अपने मित्रके साथ नगरमें घूमने के लिए निकला| घूमते-घूमते उपाश्रय के निकट से गुजरे| वहॉं उपाश्रयमें साधुओं को देखकर मजाक-शरारत करने का मन हुआ| सभी मित्रों के साथ वह भी उपाश्रयमें गया| वहॉं उनके मित्र स्वाध्याय करते हुए साधुओ को गंभीरभाव से कहने लगे कि, हमारे यह युवक मित्र को दीक्षा की भावना हुई हैं| आप उनको दीक्षा प्रदान कीजिए| साधु समझ गये कि ये सब हँसी उड़ाने हेतु ही ऐसी बातें कर रहे हैं| इसलिए उन सभी को नसीहत देने के लिए साधुओंने कहा- हम तो शिष्य हैं| हम दीक्षा नहीं दे सकते| आप ऐसा करो, वहॉं दूर के कमरेमें हमारे गुरु भगवंत बिराजित हैं| उनके पास जाकर दीक्षा की याचना करो| वे आपको अवश्य दीक्षा प्रदान करेंगे|
सभी युवक गुरुभगवंत श्री चंडरुद्राचार्य के पास गये| गुरुभगवंत का नाम रुद्राचार्य था| किन्तु अतिशय क्रोधी स्वभाव होने से वे चंडरुद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे| वे अन्य की छोटी सी भूल या प्रमाद देखकर बहुत ही क्रोधाविष्ट हो जाते थे| बादमें स्वयं ही पश्चाताप करते थे कि अन्य की भूल सुधारने के लिए मैंने क्यों गुस्सा किया ? मैंने गलत किया|
(शायद आप कहेंगे कि, यहॉं पश्चाताप करने की क्या जरूरत है? शिष्य का प्रमाद सहन नहीं होना और शिष्य को सुधारने के लिए तिरस्कार करना पड़े, क्रोध करना पड़े तो उसमें गलत क्या है कि पश्चाताप करना पड़े? यह क्रोध तो अन्य को सुधारने के लिये है| गुरु- बुजुर्ग-सेठ या नायक के तौर पर यह तो फ़र्ज है, जिम्मेदारी है|
आपकी शंका उचित है| परन्तु समाधान यह है कि क्रोध करना ही सबसे बड़ी भूल है| प्रमाद तो धूल है, किन्तु क्रोध तो आग है| घर धूलसे व्याप्त हो जाए तो गलत ही है, किन्तु घरमें आग लग जाए वह तो सत्यानाश का कारण बन जाता है| इसलिए ही तो कहा है कि ‘‘क्रोधथी क्रोडपूर्वतणुं संजम फल जाय|’’ आपको यह बात शायद भारी और आपकी मान्यता व आपके अनुभवसे विपरीत लगेगी| किन्तु यह बात सत्य है| देखिये उसके कारण……..
१) जैसे जैसे आप क्रोधशस्त्र का उपयोग करते जायेंगे, वैसे वैसे आपका वह शस्त्र कुंद होता जाएगा| आपका प्रभाव और आपका मूल्यांकन दिनप्रतिदिन कम होता जाएगा| फिर तो सब लोग आपकी सच बात के लिए सच्चे क्रोध की भी अवहेलना-उपेक्षा करते हुए कहेंगे कि ‘‘उसे तो बात बातमें गुस्सा करने की आदत पड गई हैं|’’ शायद आपकी निंदा भी होगी| आपको समुदाय-संघ-समाज के कार्यमें कभी शामिल भी नहीं करेंगे| अकेले हो जाए और व्याकुलता की अनुभूति हो ऐसी परिस्थितियॉं का सर्जन कर देंगे| और जब आप क्रोधमें या आवेशमें आ जायेंगे, तब सुधरने या भयभीत होने के बजाय आपके पर हँसना शुरु कर देंगे|
एक पतिने अपनी पत्नीको चाय बनाने के लिए कहा- तब पत्नीने इनकार कर दिया| पति क्रोधमें आकर चीखने लगा| तब पत्नीने हँसते हँसते कहा- ‘‘चीखने के लिए इतना श्रम लेने और समय बिगाड़ने से तो अच्छा होता कि आप स्वयं ही चाय बना लेते| यह सुनकर क्रोधसे धधककर पतिने कहा- ‘‘हॉं ! हॉं ! मुझे भी चाय बनाना आता है, में पराधीन नहीं हूँ, मुझे किसीकी जरुरत नहीं है’’, इतना कहकर पति स्वयं ही चाय बनाने के लिए रसोईघरमें गया|
लेकिन वहॉं बहुत प्रयत्न करने पर भी चूल्हा सुलगता नहीं था| यह देखकर पत्नीको हँसना आया| तब निष्फलताके घॉंव पर नमक छीडकने जैसी परिस्थिति होने पर पति का क्रोध आँसमान पर चढ़ा और जोर से चिल्लाने लगा- अब तू इस तरह मेरा अपमान करेगी, तो मैं पूरे घर को जलाकर राख कर दूंगा|
तब पिताजी की ऐसी बात सुनते ही पुत्र हँसने लगा| अपनी ऐसी धमकी की पुत्र भी हंसी उडाए यह बात पिताजी के लिए असह्य थी| पुत्र पर रोब झाडकर पिताजी कहने लगे, ‘‘तू क्यों हँसता है ?’’ तब पुत्रने कहा- पिताजी ! आप चूल्हा तो जला नहीं सकते और पूरे घरको जलाने की बात कर रहे हो | अब पिताजी क्या जवाब देंगे ? बात यह है कि बार बार क्रोध करने से अन्य के लिए आपका क्रोध सुधरने का हेतु न बनकर हॉंसीपात्र बन जाता है|
२) एकबार क्रोध के बाद आप कंट्रोल नहीं कर सकोगे कि क्रोध कहॉं तक करना और कितना करना ? क्योंकि अब क्रोध का उेपींीेश्रळपस झेुशी आपके हाथमें रहेगा नहीं और तब ऐसी परिस्थिति का निर्माण होगा कि अन्य की भूल से जो नुकसान होने की संभावना थी, उससे ज्यादा नुकसान आपके क्रोधसे होगा|
एक लड़का परीक्षामें नापास हुआ| उसका परिणामपत्रक देखते ही उसके पिताजी इतने आवेशमें आ गये कि अपने पुत्र को बेहद मारने लगे| परिणाम यह आया कि इतने बेहद मार से लड़के की मौत हो गई और पिताजी को कैद हो गई|
आप ही कहो कि चार गियरवाली, शीघ्र पीकपवाली, उत्तम ऐक्सीलेटरवाली कारमें यदि ब्रेक न हो तो आप उस कारको पसंद करेंगे? क्रोध में गियर, पीकप फेसीलीटी और ऐक्सीलेटर सब टीप-टोप होते हैं, लेकिन ब्रेक कहॉं ? फिर भी हमें ऐसा क्रोध पसंद आता है|
यहॉं क्रोधमें उलाहना-ताना वह प्रथम गियर है, कठोर उपालंभ और कटु भाषा सेकंड- गियर है, गालीप्रदान और आगबबुली भाषा थर्ड गियर है, और मारामारी-अपमानभरा व्यवहार वह चौथा गियर है| क्रोधके संस्कार और बार बार क्रोध करनेकी आदत क्रोधकी पीकप शक्ति को बढ़ा देती है और मेरे क्रोध की उसके पर कोई असर ही नहीं होती, वह मेरी उपेक्षा कर रहा है, स्वयं का बचाव करके सामने जवाब देता है इत्यादि बातें क्रोध के लिए ऐक्सीलेटर बन जाती हैं| जब कि उस अवसर पर क्रोधसे संभवित नुकसानआदि की विचारणा क्रोध के लिए ब्रेक तुल्य है| अब आप ही कहो, क्रोधके अवसर पर क्या यह ब्रेक सलामत होती है ? कहते हैं कि ईरान के बादशाह नादीरशाह हाथी पर बैठने राजी नहीं थे, क्योंकि हाथीको लगाम नहीं होती और अँकुश भी अपने हाथमें नहीं किन्तु महावत के हाथमें होता है| क्रोध की बात भी ठीक ऐसी ही है, क्योंकि एक बार क्रोध करने के बाद लगाम और अंकुश अपने हाथमें नहीं रहता|
३) प्रमाद व भूल वे तो मिट्टी के दाग हैं, जो अन्य की आत्मा को कलुषित करते हैं| जब कि क्रोध का दाग तो आग से लगा हुआ रहता है जो मिटाना भी मुश्किल है और वह दाग अपनी आत्मा को ही कलुषित करता है| परमात्माने कहा है कि- पहले स्वयं को स्वच्छ करो – सुधारो, बादमें जगत को सुधारने का प्रयत्न करना| जिससे स्वयं को नुकसान हो, ऐसा परार्थ शास्त्र मान्य नहीं है| स्वयं की आत्मा को नरकगामी बनाकर अन्य को स्वर्गगामी बनाने की बात जैनशासन को मान्य नहीं है| ‘‘आग उठे जे घर थकी’’ पंक्ति के अनुसार क्रोध की आग प्रथम तो स्वयं के आत्मघर को जलाती है, वह बात निश्चित है|
इसलिए ही भगवान मुनिसुव्रतस्वामी ने स्कन्दकाचार्य को दंडक राजाके राज्य में जानेकी अनुज्ञा नहीं दी थी| जब स्कन्दकाचार्यने बहन और बहनोई को प्रतिबोध करने हेतु परमात्मा के पास बहनोई दंडक राजाके राज्यमें जानेकी अनुमति की सामने से याचना की, तब भगवानने स्पष्ट कहा कि आप वहॉं जाकर विराधक होंगे| तब आचार्य भगवंतने पुनः प्रश्न किया- मेरे ५०० शिष्य आराधक बनेंगे या विराधक? भगवानने प्रत्युत्तर दिया- वे सभी आराधक बनेंगे| तब आचार्यने कहा- मैं भले ही विराधक बनुं ! किन्तु मेरे शिष्य तो आराधक बनेंगे न ? इसलिए आप अनुमति दीजिए| तब भाविभाव को देखकर भगवानने मौन धारण कर लिया| लेकिन अनुज्ञा नहीं दी| स्कन्दकाचार्यने भगवान के मौन को अनुमति मान ली| परिणाम यह आया कि उनके ५०० शिष्यो को पालक पापीकी घानीमें जिंदा पेरे जाने का उपसर्ग आया| सभी शिष्य तो समताभावसे असह्य वेदना को सहन करते-करते केवलज्ञान पाकर मोक्षमें गये यानी कि परमात्माके वचनानुसार आराधक बने| किन्तु श्री स्कन्दकाचार्य को, ‘‘सभी निर्दोष साधुओंका प्राणघातक पापी पालक को सजा होनी चाहिए’’ ऐसे बिचार से क्रोध की चिनगारी पैदा हुई| उपर-उपर से देखो तो यह क्रोध योग्य ही लगेगा, लेकिन इस का परिणाम क्या आया ? क्रोध की आग बढ़ती गई, पालकसे उठकर राजा पर गई| राजा भी कैसा ? पूछताछ किये बिना पालक की बात को मानकर निर्दोष साधुओंको ऐसी सजा दिलवाई| आग अधिक अधिक व्यापक होने लगी…. प्रजा कैसी ? ऐसा अन्याय होने पर भी तमाशा देखती रही| स्कन्दकाचार्य क्रोध की आग को ब्रेक न लगा सके और पालक-दंडक सभी दोषित दिखाई देने पर सभी को आगमें भस्मीभूत करने का मन ही मन संकल्प कर बैठे| स्वयं विराधक बने, मोक्षमें जा न सके| आखिर तुच्छ देव बनकर उन्होंने पालक-दंडक और प्रजा सहित पूरे राज्य को जलाकर भस्म कर दिया|
ढ़लान पर कार आई, और ब्रेक फैल ! एक ने दूसरे से पूछा, ‘‘अब क्या करेंगे ? ब्रेक फैल हो गई है|’’ तब दूसरेने जवाब दिया, ‘‘एक्सीलेटर बराबर है न ? तो उसको दबाके रख ! हम जल्दीसे नीचे उतर जायेंगे|’’
अब आप ही कहो कि क्या होगा ? ढ़लानवाले रास्ते पर ब्रेक फैल और एक्सीलेटर दबाने से गति तेज| क्रोध का समय यानी ढ़लानवाला रास्ता| स्वयं पर काबू नाम की ब्रेक क्रोध के समय पर फैल हो जाती है और कहा-सुनी आदि के रूपमें एक्सीलेटर दबाने से क्रोध की गति और बढ़ जाती है ! आप ही कहो कि अब क्या होगा ?
इसलिए ही क्रोध करने के स्पष्ट अवसर आने पर भी क्रोध करना उचित नहीं है| क्योंकि बादमें ‘कहॉं रुकना ?’ उसका पता नहीं रहता| जिसे मालुम नहीं है कि कब, कहॉं, किस तरह और कितना क्रोध करना ? उसे क्रोध करने से कोई लाभ नहीं होगा बल्के नुकसान ही होगा|
श्र शांब जैसे थोड़े उद्धत यादव युवकोंने निर्दोष द्वैपायन ऋषि को परेशान किया| फलस्वरूप द्वैपायनने संपूर्ण द्वारिका नगरी को दाह लगाने का संकल्प कर लिया और संपूर्ण नगरी को जला दी|
श्र ब्रह्मदत्त की आँख फोड़ने के कार्यमें अपराध एक ही ब्राह्मण का था| लेकिन ब्रह्मदत्त का क्रोध संपूर्ण ब्राह्मण जाति पर उतर आया|
श्र गलती थी एक क्षत्रिय राजा कृतवीर्य की और परशुराम ने सात बार पृथ्वी को नक्षत्री (क्षत्रिय रहित) कर दी|
श्र कुछ अज्ञानी लोगोंने कुरुक और उत्कुरुक नाम के दो साधु पर उपसर्ग किया| तब क्रोधी बने हुए दोनों साधुने शाप देकर संपूर्ण कुणाला नगरी को जलवर्षा में डूबा दीया| ऐसे तो कईं दृष्टांत शास्त्र में अंकित किये गये हैं|
ध्यानमें रखो, जगतमें सबसे बूरा व्यसन है क्रोध करना | अपराधी को अपराध का दंड जब मिलेगा तब, किन्तु यदि आपने क्रोध किया तो समझ लेना कि पूर्व क्रोड वर्ष पर्यन्त की आपकी तप-संयम, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सब आराधना का फल क्रोध की आगमें जलकर भस्म हो जाएगा| ‘क्रोधे क्रोड पुरवतणुं संजमफल जाय’
ऋषभदेव भगवान के जीवन के प्रारंभकाल में युगलिककाल अस्त हो रहा था| कल्पवृक्ष का प्रभाव कम होता जा रहा था| लोगों की पाचनशक्ति भी निर्बल होती जा रही थी| अत्यंत स्निग्ध काल होने पर अग्नि भी प्रकट नहीं हुई थी| (अत्यंत स्निग्धकाल व अत्यंत रुक्षकालमें अग्नि की उत्पत्ति शक्य नहीं है, ठीक उसी तरह जीवों के प्रति उत्कृष्ट प्रेम-करुणा की अत्यंत स्निग्धतामें या परम वैराग्य-औदासीन्य की अत्यंत रुक्षतामें क्रोधाग्नि प्रकट हो नहीं सकती|) जब स्निग्धता कम होने पर प्रथमबार अग्नि प्रकट हुई, तब लोग उसे रत्न समझकर पकड़ने गये| जब अग्निसे हाथ जलने लगे, तब भगवान के पास आकर कहने लगे कि- प्रभु ! जंगल में एक राक्षस प्रकट हुआ है| तब भगवान ने समझाया कि वह कोई राक्षस नहीं है, जंगलमें अग्नि प्रकट हुई है| अब आप लोग उसमें धान्य पकाकर अपना जीवन निर्वाह कर सकोगे| भगवान की बात को पूरी समझे बिना हि सभी लोग दौडे| अग्निमें धड़ाधड़ गेहूँ, चावल इत्यादि धान्य डालकर पुनः पके हुए अन्न की याचना करने लगे| लेकिन अग्निसे कुछ वापस मिला नहीं| अग्नि में डाला हुआ सारा अन्न भस्म हो गया था| बस क्रोध अग्नि की तरह अपने तप-संयम रूपी धान्य को भस्म कर देता है|
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