आलोचना का प्रायश्चित देने वाले गुरु पांच व्यवहारों के जानकार होते हैं|
आगम व्यवहारी :- अर्थात् केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, १४, १०, ९ पूर्वी हो, उनके पास प्रायश्चित लेना चाहिए|
श्रुत व्यवहारी :- आगम व्यवहारी का योग नहीं मिले, तो श्रुतव्यवहारी यानि की आधे से लेकर ९ पूर्वी, ग्यारह अंग, निशीथ आदि के जानकार के पास प्रायश्चित लेना चाहिए|
आज्ञा व्यवहारी :- श्रुत व्यवहारी का योग नहीं मिले, तो दो गीतार्थ आचार्य मिल सके, ऐसा संभव न हो, तब सांकेतिक भाषा में अगीतार्थ साधु को समझाकर गीतार्थ आचार्यश्री के पास भेजें और वे गीतार्थ आचार्यश्री सांकेतिक भाषा में उसे जवाब दें| उसके पास प्रायश्चित लेना चाहिए|
धारणा व्यवहारी :- आज्ञा व्यवहारी नहीं मिले, तो गीतार्थ गुरू ने जो प्रायश्चित दिया हों, वह याद रखकर जो प्रायश्चित दें, उनके पास प्रायश्चित लेना चाहिए|
जित व्यवहारी :- धारणा व्यवहारी नहीं मिले, तो जो गुरू सिद्धान्त में बताये हुये प्रायश्चित से, द्रव्य-क्षैत्र-काल-भाव को जानकर कम या अधिक प्रायश्चित देते हों| वर्तमान काल में जित व्यवहारी स्वगच्छ के आचार्यश्री के पास साधु या श्रावक प्रायश्चित लें, यदि स्वगच्छ के आचार्यश्री नहीं मिले, तो स्वगच्छ के उपाध्यायश्री, प्रवर्तक, स्थविर या गणावच्छेदक के पास प्रायश्चित लेना चाहिए| यदि ऊपर कहे मुताबिक नहीं मिले, तो सांभोगिक अर्थात् जिसके साथ स्वगच्छ की सामाचारी मिलती हो, उन आचार्यादि पांच के पास प्रायश्चित लेना चाहिए| यदि वैसे आचार्यादि भी नहीं मिले, तो विषम समाचारी वाले आचार्यादि पांच के पास प्रायश्चित लेना चाहिए|
उपर्युक्त कथन के अनुसार ७०० योजन एवं १२ वर्ष तक गीतार्थ गुरू नहीं मिले, तो फिर गीतार्थ पासत्था के पास प्रायश्चित ले| प्रायश्चित लेने के लिए पासत्था को भी वंदन करने चाहिए, क्योंकि धर्म का मूल विनय है| यदि पासत्थादि स्वयं को गुणरहित मानें और वंदन नहीं करवाये, तो आसन पर बैठने की विनंति करके प्रणाम करके फिर आलोचना ले| यदि गीतार्थ पासत्थ आदि का संयोग नहीं मिले, तो गीतार्थ सारूपिक के पास आलोचना का प्रायश्चित ले| सारूपिक अर्थात् जो सफेद वस्त्र धारण करे, सिर पर मुंडन करवाये, धोती का कच्छ न बांधे, ओघा न रखे, पत्नी नहीं रखे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, भिक्षा (गोचरी) से जीवन निर्वाह करे| यदि सारूपिक का योग नहीं मिले, तो सिद्धपुत्र पश्चात्कृत के पास आलोचना का प्रायश्चित लें| सिद्धपुत्र यानि कि सिर पर चोटी रखे और पत्नी सहित हों| चारित्र और साधु के वेष का त्याग करके गृहस्थ बना हो, वह पश्चात्कृत कहलाता है| उसको वेश पहनाकर ईत्वरिक सामायिक उच्चराकर विधिपूर्वक प्रायश्चित लेना चाहिए| उपर्युक्त कहे हुए जो पासत्थ आदि नहीं मिले, तो राजगृही नगरी में गुणशील चैत्य (मंदिर) आदि में जिन देवताओं ने तीर्थंकर, गणधर वगैरह महापुरूषों को आलोचना देते हुए देखे हैं, उनको अट्ठम आदि तप से प्रसन्न करके उनके पास आलोचना ले| कदाच ऐसे देवों का च्यवन हो गया हों, तो दूसरे देव को स्वयं की आलोचना कहकर महाविदेह क्षेत्र में से अरिहंत भगवान आदि के पास से प्रायश्चित मँगवाये|
यदि वह भी संभव न हों, तो प्रतिमाजी के सामने आलोचना कहकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध बने| यदि उसकी भी शक्यता नहीं हो, तो पूर्व और उत्तरदिशा में अरिहंत एवं सिद्ध भगवान की साक्षी में आलोचना लेकर प्रायश्चित को स्वीकार करें, परन्तु पाप के प्रायश्चित लिये बिना नहीं रहें, क्योंकि शल्य सहित मृत्यु प्राप्त करने वाले विराधक बनते हैं| अनंत संसार परिभ्रमण करते हैं| यहां विशिष्ट रूप से ध्यान रखने योग्य है कि आलोचना का प्रायश्चित स्वगच्छीय आचार्यश्री आदि के पास में ही लेना चाहिए| यदि उनका संयोग ही नहीं मिले, तो ही अन्त में पूर्व या उत्तरदिशा में मुँह रखकर अरिहंत की साक्षी में आलोचना कहनी चाहिए| परन्तु स्वगच्छीय आचार्यश्री आदि का संयोग मिलता हो, तो पूर्व या उत्तर दिशा में मुँह रखकर अरिहंत की साक्षी में आलोचना कहे, तो वह आराधक नहीं बनता|
शुद्ध आलोचना लेने से ८ गुण प्रकट होते हैं :-
अर्थात्
1) जैसे माथे से भार उतारने के पश्चात् भारवाहक हल्कापन महसूस करता है, उसी प्रकार शुद्ध आलोचना करने के पश्चात् हृदय और मस्तक में हल्कापन महसूस होता है, क्योंकि दोषों का बोझ दिल दिमाग पर नहीं रहा|
2) ल्हाई जणणं अर्थात् आनंद उत्पन्न होता है| जिस तरह कोई पैसे खर्च कर सुकृत करें, तो उसे उस सुकृत के आनंद की अनुभूति होती है| उसी तरह मन को तैयार कर आलोचना शुद्धि करने रूप जो सुकृत करें, तब उसे उस सुकृत के आनंद की अनुभूति होती है|
3) आलोचना कहने से खुद के दोषों की निवृति होती हैं और उसे देखकर दूसरे भी आलोचना शुद्धि करते हैं| जिससे स्व-पर दोषो की निवृत्ति होती है|
4) सरलता गुण प्रकट होता है|
5) दोषरुपी मैल दूर हो जाने से आत्मा शुद्ध बनती हैं|
6) पूर्वभवों का अभ्यास होने से दोषों और पापों का सेवन हो जाता हैं, वह दुष्कर नहीं हैं, परंतु जो उसकी आलोचना गुरुदेव से कहे, वह दुष्करकारक कहलाता हैं, क्योंकि मोक्ष के अनुरुप प्रबल वीर्य के उल्लास विशेष के द्वारा ही वैसी आलोचना कही जाती है|
7) जिनेश्वर भगवान की आज्ञा की आराधना होती है, क्योंकि तीर्थंकर परमात्माने ही गीतार्थ गुरु के पास आलोचना लेने के लिये कहा है|
8) दोषरुपी शल्य से मुक्त बनते हैं|
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