जंगल से एक मुनि गुज़र रहे थे| रास्ता भूल जाने के कारण दोपहर के समय बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े| गाय चराने के लिए आये हुये चार ग्वालों ने इस दृश्य को दूर से देखा| वे नज़दीक आये| मुनि बेहोश थे| होठ सूख गए थे| चेहरा कुम्हला गया था| तृषा का अनुमान कर उन्होंने गाय को दुहकर मुँह में दूध डाला| इससे मुनि होश में आये| कुछ समय के बाद मुनिश्री ने चारों को समझाने का प्रयास करते हुए कहा कि संसाररूपी जंगल में उनकी आत्मा भटक रही हैं| उस दुःख से पार उतरने के लिये एकमात्र साधन है चारित्र धर्म| इस प्रकार का बोध दिया| चारों ने प्रतिबोध पाकर चारित्र ग्रहण किया| उनमें से दो आत्माएं तो उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चली गई|
शेष दो जनों को एक विचार आया कि स्नान किये बिना शुद्धि किस प्रकार से हो सकती है? क्या इतने मैले कपड़े रखने? इस प्रकार घृणा करने से नीच गोत्र कर्म बांध दिया| उसकी आलोचना लिये बिना ही काल कर गये| बाद में क्रम से पूर्व भव में बांधे हुए नीच गोत्र के उदय से चंडालकुल में चित्रक व संभूति के रूप में उत्पन्न हुए|
युवा-अवस्था में सुरीला और मधुर कंठ होने से लोग उनके संगीत में मशगूल बन जाते थे| गीत-संगीत के रसिक महिलाओं के झुंड के झुंड उन दोनों का संगीत सुनने के लिये आते थे| अनर्थ का कारण जानकर राजा ने उनको देश-निकाल किया| दोनों पहाड़ पर से कूदकर आत्महत्या करने का विचार कर रहे थे| इतने में तो मुनि ने उनको मानव जीवन की महानता समझाई, जिससे दोनों भाईयों ने दीक्षा ली| गॉंव-गॉंव विहार करने लगे|
एक बार दोनों मुनि हस्तिनापुर आये| वहॉं मासक्षमण के पारणे में दोनों मुनि गोचरी गये थे| तब पूर्व-अवस्था के वैर का स्मरण होने से चक्रवर्ती सनत्कुमार के मंत्री नमुचि ने खुद के गौरव की रक्षा के लिये सिपाहियों के द्वारा दोनों मुनियों को गॉंव के बाहर निकलवा दिये| संभूति मुनि क्रोध में आकर उसके ऊपर तेजोलेश्या छोडने को तैयार हुए| मुख में से धुआँ निकलने लगा| लोग घबरा गये| सनत्कुमार चक्रवर्ती ने मुनि के पास आकर माफी मांगी और मंत्री के पास भी माफी मंगवायी| चित्रक मुनि के बहुत समझाने पर संभूति मुनि ने सब को क्षमा तो किया, लेकिन दोनों मुनि ने विचार किया कि इस देह के कारण कषायादि करने पड़ते हैं, इसलिये हम दोनों अनशन कर लें| दोनों मुनि जंगल में अनशन करने लगे| अब लोग दोनों मुनि की खूब प्रशंसा करने लगे| यह सुनकर सनत्कुमार की पत्नी स्त्रीरत्न सुनंदा १ लाख ९२ हजार परिवार के साथ दोनों मुनि को वंदन करने आयी| वंदन करते-करते सुनंदा के केश संभूति मुनि के पॉंव को छू गये| उस केश के स्पर्श से संभूति मुनि को अत्यंत राग उत्पन्न हुआ और नियाणा किया कि संयम का फल स्त्रीरत्न, परभव में मुझे मिले| चित्रक मुनिने उनको बहुत समझाया| लेकिन उन्होंने आलोचना न ली, बल्कि कहा कि, मैंने दृढ़ मन से नियाणा किया है, वह फिरने वाला नहीं | इसलिये आप अब मुझे कुछ मत कहना| यह सुनकर चित्रक मुनि शांत रहे| फिर दोनों मुनि काल करके देवलोक में गये| उसके बाद चित्रक का जीव पुरिमताल नगर में श्रेष्ठिपुत्र बना और संभूति मुनि का जीव कांपिल्यपुर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना और मरकर सातवीं नरक में गया|
यदि उसने आलोचना ले ली होती, तो सातवीं नरक के योग्य कर्म बंध न होता| अतः हमें अवश्य आलोचना लेनी चाहिये|
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