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बहुत न बोलें

बहुत न बोलें

बहुयं मा य आलवे

बहुत अधिक न बोले

कुछ लोग बहुत अधिक बोला करते हैं| वे दिन भर कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं| मौन रहना उन्हें नहीं सुहाता| बड़ी बुरी आदत है यह|

ऐसे लोगों के पेट बड़े क्षुद्र होते हैं| उनमें कोई बात टिक नहीं पाती | यदि किसी का कोई रहस्य इन्हें मालूम हो जाये; तो उसे भी ये तत्काल दूसरों के सामने उगल देते हैं| समय से पहले खुला हुआ रहस्य कार्यसिद्धि में कितना बाधक बनता है इसे वे नहीं जानते| उनकी जीभ तो बस कैंची की तरह निरन्तर चला ही करती है|

इनकी बातें लम्बी-चौड़ी तो होती हैं, पर गहरी बिल्कुल नहीं होतीं|

आत्मप्रशंसा की बीमारी भी इन्हें लग जाती है| प्रशंसा जब दूसरों से सुनी जाती है, तभी सुख देती है| अपने मुँह से की गई अपनी प्रशंसा हमें वास्तविक सुख नहीं दे सकती; परन्तु बकवादी यह सब भूल जाते हैं|

ये लोग दूसरों को मौन रहने का उपदेश दे सकते हैं, मौन की महत्ता पर लच्छेदार भाषण दे सकते है, परन्तु स्वयं मौन नहीं रह सकते – कितनी विचित्र बात है यह ?

ज्ञानियों ने कहा है कि हमें वाणी पर संयम रखने का अभ्यास करना चाहिये| यदि हमें अच्छा बोलना है; तो हम बहुत न बोलें|

- उत्तराध्ययन सूत्र 1/10

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