जो मग्गे कुणई घरं
साधना में संशय वही करता है, जो मार्ग में घर करना (ठहरना) चाहता है
इस प्रकार लक्ष्य और मार्ग का एक बार निश्चित बोध हो जाने पर साधक अपनी साधना में जुट जाता है और तब तक विश्रान्ति का विचार नहीं करता – आराम की कामना नहीं करता, जब तक कि उसे अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता|
फिर भी कुछ लोग लक्ष्य की ओर कदम तो बढ़ा लेते हैं; परन्तु बाद में कठिनाइयों से व्याकुल होकर उस मार्ग को छोड़ने का भी विचार करने लगते हैं| ऐसे व्यक्ति बड़े चतुर होते हैं| वे सोचते हैं कि कठिनाइयों से व्याकुल होने के कारण मार्ग छोड़ने की बात लोगों को मालूम हो जायेगी तो वे हमें कायर समझेंगे – डरपोक समझेंगे| इस बदनामी से बचने के लिए वे मार्ग में ही संशय प्रकट करने लगते हैं| कहते हैं – हमने चलने से पहले ठीक निर्णय नहीं किया था कि अमुक मार्ग सन्मार्ग है या कुमार्ग| चलने के बाद पता चला कि अमुक मार्ग कुमार्ग है, इसलिए हम मार्ग छोड़ने को विवश हो रहे हैं – मार्ग में ही घर कर रहे हैं – ठहर रहे हैं|
- उत्तराध्ययन सूत्र 6/26
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