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क्रुद्ध न हों

क्रुद्ध न हों

अणुसासिओ न कुप्पिज्जा

अनुशासन से क्रुद्ध नहीं होना चाहिये

माता-पिता एवं गुरुजन हमसे बड़े होते हैं – अधिक अनुभवी होते हैं| वे हमें सुधारने के लिए – कुमार्ग से हटा कर हमें सुमार्ग पर ले जाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं| इस प्रयत्न के सिलसिले में अनेक बार वे हमारी आलोचना करते हैं- अनेक बार हमारे दोष बताते हैं और उनसे बचने का उपदेश देते हैं| बार-बार एक ही अपराध करने पर वे हमें डॉंट-फटकार भी बताते हैं अर्थात् ताड़ना-तर्जना भी करते हैं|

उनके इस कठोर व्यवहार के मूल में रही हुई उनकी हितैषिता उस को भूलकर जो उनपर क्रुद्ध होते हैं, वे अपने पॉंवों पर आप कुल्हाड़ी मारने वाले मूर्ख हैं| उन्हें सोचना चाहिये कि गुरुजनों को हमें दण्ड देने में कोई आनन्द नहीं आता| अनिच्छापूर्वक हमारी भलाई के ही लिए वे अनुशासनात्मक कठोर कार्यवाही करने का कष्ट उठाते हैं| कुछ समय के लिए अशान्ति का क्षोभ का – उग्रता का प्रदर्शन वे इसलिए करते हैं कि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सके| अतः हमें चाहिये कि अनुशासन पाकर भी इन गुरुजनों पर कभी क्रुद्ध न हों|

- उत्तराध्ययन सूत्र 1/6

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