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निवृत्ति – प्रवृत्ति

निवृत्ति   प्रवृत्ति

असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं

असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति होनी चाहिये

प्राण धारण करनेवाला प्रत्येक जीवन सक्रिय होता है| वह अच्छी या बुरी प्रवृत्ति करता रहता है|

अच्छी-बुरी प्रवृत्ति से उसकी आत्मा शुभाशुभ कर्मोंका उपार्जन करती है| कर्मों के भार से लदा हुआ जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है और जन्म-जरा-मृत्यु के चक्कर में पड़ा रहता है|

इस चक्कर में उसे कभी सुख मिलता है, कभी दुःख मिलता है – कभी वह हँसता है, कभी रोता है | ज्ञानियों का अनुभव है कि संसार में हँसने की अपेक्षा रोने के अवसर अधिक प्राप्त होते हैं – कणभर सुख के पीछे मणभर दुःख छिपा रहता है|

सुख अच्छा तो लगता है; किन्तु वह शहद से लिपटी तलवार की धार को चाटने की तरह अत्यन्त भयंकर परिणामों का जनक है|

ऐसी अवस्था में क्या किया जाय! यह एक विचारणीय प्रश्‍न है| ज्ञानी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं; कि असंयम से निवृत्त रहो और संयम में सदा प्रवृत्त रहो| इस प्रकार निवृत्ति एवं प्रवृत्ति से अपना उद्धार करो|

- उत्तराध्ययन सूत्र 31/2

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