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निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

सारदसलिलं इव सुद्धहियया,
विहग इव विप्पमुक्का,
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा

मुनियों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है| वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं

बरसातके दिनों में नदी का जो पानी चाय या कॉफी की तरह मिट्टी के मिश्रण से लाल या काला दिखाई देता है, वही शरद्काल में निर्मल हो जाता है| मुनिजनों का हृदय भी वैसा ही निर्मल होता है| उसमें विषय कषाय की मलिनता का अभाव होता है|

पक्षी जिस प्रकार मुक्त होते हैं – किसी एक स्थान से बँधे हुए नहीं होते| उसी प्रकार मुनिजन भी किसी एक स्थान पर नहीं ठहरते| किसी भी एक गॉंव या नगर पर उनकी ममता नहीं होती| पक्षी जैसे कभी एक वृक्ष पर तो कभी दूसरे पर बैठकर उड़ जाता है; वैसे ही मुनि भी कभी एक स्थल पर तो कभी दूसरे स्थल पर केवल कुछ दिन ठहर कर अन्यत्र विहार कर जाते हैं|

पृथ्वी जिस प्रकार सब कुछ सहन करती है – भले ही कोई उस पर चले, उसे कुदाल से खोदे या हल चलाकर उसकी छाती फाड़े; उसी प्रकार मुनि लोग भी सारे परीषह सहते हैं|

इस प्रकार निर्मल हृदय वाले मुनिजन मुक्त एवं सहिष्णु होते हैं|

- सूत्रकृतांग सूत्र 2/2/38

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