कामी कामे न कामए, लद्धे वा वि अलद्ध कण्हुइ
साधक कामी बनकर कामभोगों की कामना न करे| उपलब्ध को भी अनुपलब्ध समझे| प्राप्त भोगों पर भी उपेक्षा करे|
यहॉं तक कि यदि बिना किसी प्रयत्न के सहज ही कामभोग के विषय उपलब्ध हो जायें; तो भी उन्हें अनुपलब्ध ही समझना चाहिये अर्थात् उन पर सर्वथा उपेक्षा रखनी चाहिये| आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ने के लिए कामभोगों के प्रति यह उपेक्षावृत्ति बहुत सहायक होगी|
साधारण व्यक्ति भी कामनाएँ करते रहते हैं| यदि साधक भी ऐसी कामनाएँ करने लगे; तो दोनों में फिर अन्तर ही क्या रह जायेगा ? अतः साधकों के लिए सर्वथा त्याज्य है – यह कामों की कामना|
- सूत्रकृतांग सूत्र 1/2/3/6
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