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स्वपर-कल्याण में समर्थ

स्वपर कल्याण में समर्थ

अलमप्पणो होंति अलं परेसिं

ज्ञानी स्व-परकल्याण करने में समर्थ होते हैं

पत्थर की नाव स्वयं भी डूबती है और बैठनेवाले यात्रियों को भी डुबो देती है; किंतु जो नाव काष्ट की बनी होती है, वह स्वयं भी तैरती है और दूसरों को भी तिराती है| ज्ञानियों और अज्ञानियों में यही अन्तर है| अज्ञानी स्वयं तो संसार में भटकते ही हैं, साथ ही अपने आश्रितों को भी कुमार्ग बता कर भटकाते रहते हैं, किन्तु ज्ञानी न स्वयं भटकते हैं और न दूसरों को ही भटकाते हैं|वे स्वयं तीर्ण होते हैं और दूसरों के तारक भी -स्वयं बुद्ध होते हैं और दूसरों के बोधक भी – स्वयं मुक्त होते हैं और दूसरों के मोचक (मुक्तिदाता) भी|

ऐसे ज्ञानी गुरुदेव सब का भला सोचते हैं – सब का भला करते हैं – सब का भला सुनते हैं और सब को भला सुनाते हैं| भलाई या कल्याण के अतिरिक्त उनका अन्य कोई ध्येय नहीं होता| चरम तीर्थंकर महावीरस्वामी का कथन है कि सम्यग्ज्ञानी साधक निरन्तर कल्याणमार्ग पर चलते-चलाते रहते हैं, क्यों कि वे स्व-पर-कल्याण करने में पूर्ण समर्थ होते हैं|

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/12/16

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