ए हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं किच्चति
यथावसर संचित धन को तो अन्य व्यक्ति उड़ा लेते हैं और परिग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्फल स्वयं भोगना पड़ता है
यही बात अन्य पापों के विषय में भी कही जा सकती है| पाप करके अपनी आत्मा को कलुषित करने पर भी जो कुछ धन एकत्र होता है, उसे दूसरे लोग भोगते रहते हैं| वह स्वयं अपने धन का उपभोग नहीं कर पाता| वह तो अपने धन का रक्षक (रखवाला या चौकीदार) मात्र बन कर रह जाता है| रक्षा भी वह पूरी तरह कहॉं कर पाता है ?
उसके कुटुम्बी, उसके रिश्तेदार, उसके मित्र एवं रिश्वतखोर अधिकारी या चोर, ठग आदि उसका धन भोगते या छीनते ही रहते हैं| वह तो केवल पापों का फल भोगता है – कष्ट सहता है| यह तो ठीक वैसा ही है जैसा ‘‘अन्धी पीसे कुत्ता खाये|’’
- सूत्रकृतांग सूत्र 1/6/4
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