गुरुजनों की अवहेलना करनेवाला कभी बन्धनमुक्त नहीं हो सकता|
हम देखते हैं कि एक झरना कलकल निनाद करता हुआ बहता है| उसकी ध्वनि मनमोहन होती है – मधुर होती है| उसमें वह मधुरता कब से पैदा हुई ? तभी से जबसे वह पर्वतीय कठोर चट्टानों के बन्धन से स्वतन्त्र हुआ|
जो तोता किसी के पिंजड़े में कैद है, उसे उत्तम फलों का रस पीने में भी उतना आनन्द नहीं आ सकता, जितना किसी स्वतन्त्र तोते को केवल पानी पीने में आता है|
साधु, मुनिराज अथवा आध्यात्मिक गुरु स्वयं सांसारिक बन्धनों से मुक्त होते हैं और वे दूसरों को भी बन्धनमुक्ति का मार्ग बताते रहते हैं| ऐसे गुरुओं की उपासना करके हम उनसे स्वतन्त्र रहने का पाठ सीख सकते हैं| यदि हम उनकी उपासना के बदले उनकी अवहेलना करें – उपेक्षा करें – अपमान करें; तो भला कैसे हम उनके जीवन और उपदेशों से लाभान्वित हो सकेंगे ?
इसलिए कहा गया है कि गुरुजनों की अवहेलना करनेवाला बन्धनमुक्त नहीं हो सकता|
- दशवैकालिक सूत्र 6/1/7
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