मज्झे तस्स कुओ सिया ?
जिसके आगे-पीछे न हो, उसके बीच में भी कैसे होगा?
इस कथन का स्पष्टीकरण यह है कि जिस साधक को न अपने पूर्वभुक्त भोगों की स्मृति रहती है और न भविष्य के भोगों की ही कोई कामना रहती है, उसे वर्तमानकाल में भी भोगासक्ति कहॉं से रहेगी?
इस सूक्ति द्वारा साधकों को यह प्रेरणा दी गई है कि कामभोगों की ओर वे अपना दृष्टिकोण कैसा बनायें | उन्हें एक बार प्रव्रज्या अंगीकार कर लेने के बाद कभी अपने पूर्वभुक्त भोगों का किञ्चित् भी स्मरण नहीं करना चाहिये| भोगों की स्मृति एक आग की लपट होती है, जो तपस्या को और साधना को जलाकर राख कर देती है|
इसी प्रकार भविष्य में भोगप्राप्ति की इच्छा रखने से भी सारी साधना उलट जाती है| आध्यात्मिक साधना उस से स्वार्थसाधना में परिणत हो जाती है| जहॉं तक वर्तमान भोगासक्ति का प्रश्न है, वह तो तत्काल अपयश का कारण बन जाती है| अतः तीनों भोगसक्तियॉं त्याज्य हैं; वर्तमान से भी पहले भूतभविष्य की; क्योंकि जिसके आगे पीछे नहीं, उसके बीच में कहॉं ?
- आचारांग सूत्र 1/4/4
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