सम्मत्तदंसी न करेइ पावं
सम्यग्दर्शी पाप नहीं करता
साधारण व्यवहार में भी देखा जाता है कि लोग ज्ञात वस्तु पर ही विश्वास करते हैं अज्ञात पर नहीं| यदि कोई अज्ञात वस्तु हमारे सम्पर्क में आती है, तो उस पर विश्वास करने से पहले हम उसे जानने का प्रयास करते हैं; क्यों कि जाने बिना जो विश्वास करते हैं, वे धोखा खाते हैं|
जब साधक यह अच्छी तरह समझ लेता है कि जीव और अजीव में भेद है – मैं जीव हूँ और अन्य दिखाई देनेवाले सारे पदार्थ जड़ हैं – पुद्गल हैं – अजीव हैं; मरनेपर जीव अकेला ही अन्यत्र जाता है – ये सारे पदार्थ – यहॉं तक कि अपना शरीर भी यहीं छूट जाता है, तब शारीरिक सुख के लिए पाप करने की उसमें रुचि ही नहीं रह जाती; इसीलिए धर्म चाहे जितना करे, पाप नहीं करता-सम्यग्दर्शी|
- आचारांग सूत्र 1/3/2
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