जाए सद्धाए निक्खंते,
तमेव अणुपालेज्जा विजहित्ता विसोत्तियं
जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रमण किया है, उसी श्रद्धा के साथ विस्त्रोतसिका (शंका) छोड़कर उसका अनुपालन करना चाहिये
साधना के मार्ग में फूलों से अधिक तीक्ष्ण कण्टक होते हैं, इसलिए साधक को बीच-बीच में अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है| उनसे व्याकुल हो कर कभी-कभी वह अपने मार्ग से भटक जाता है – बारम्बार मिलनेवाली असफलताओं से कभी-कभी वह निराश भी हो जाता है|
परिणामस्वरूप सन्मार्ग के प्रति उसकी श्रद्धा घट जाती है और उसके मन में ऐसी शंका उत्पन्न हो जाती है कि चलने के लिए जिस मार्ग को मैंने चुना है – अपनाया है, वह उत्तम है भी या नहीं? परन्तु साधना के चरम शिखर पर पहुँचे हुए चरम तीर्थंकर महाश्रमण श्री महावीरस्वामी ऐसे अल्पसत्त्व (शंकाशील) साधकों को सत्परामर्श देते हुए कहते हैं कि वे अपनी मानसिक शंका का परित्याग कर जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रान्त हुए हैं, निश्चित सफलता पाने के लिए अपनी साधना पर उसी श्रद्धा से टिके रहें|
- आचारांग सूत्र 1/1/3
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