जो व्यक्ति मृगावती या तो चंडरुद्राचार्य के शिष्य की तरह निर्विवाद क्षमा-याचना करते हैं, वे केवलज्ञान पाते हैं| धर्मसागर उपाध्याय की तरह छोटे-बड़े का भेद भूलकर क्षमा याचना करनेवाला सर्वत्र शांति और समाधि की सौरभ को फैला सकता है और संवत्सरी प्रतिक्रमण जैसी महान धर्मक्रिया को प्राणवन्त बना सकता है| अइमुत्ता मुनिने ईरियावही सूत्र के माध्यम से अप्काय जीवोंको पीडित करने के लिये अंतःकरणपूर्वक क्षमापना की, तो उन्होंने भी केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली| जब हम खुद ही सभी के अपराधी हैं, तब हम अन्य के अपराध को याद ही कैसे कर सकते हैं? गुणसेन और अग्निशर्मा के नौं भव की परंपरा ज्ञात होते ही सूरिपुरंदर हरिभद्र सूरि म.सा. बौद्धों के प्रति द्वेष का त्याग करके क्षमाभाव में आ गये| क्षमा विषयक, ‘‘उपशम अमृतरस पीजिये’’, ‘‘क्षमा=प्रेम+मैत्री की महेंक’’, ‘‘हंसा ! तुं झील मैत्री सरोवरमें|’’ इत्यादि पुस्तकें बारबार पढ़ते रहो|
प्रत्येक ईरियावही करते समय परमात्मा की कोर्टमें स्वयं को अपराधी के रूपमें देखो| ५६३ जीवभेद को फरियादी स्वरूप देखकर १८२४१२० प्रकार से क्षमा की याचना करो| यानी कि- ५६३ जीवभेद हैं, जो जीवविचार सूत्रमें प्रस्तुत किये गये हैं| वह एक एक जीवभेद को दस-दस प्रकार की पीड़ा दी हैं जो ईरियावही सूत्रमें बताई गई हैं (अभिहया, वत्तिया, लेसिया इत्यादि) इसलिए ५६३१०=५६३०| वे पीड़ा राग और द्वेष के माध्यम से होने के कारण विराधनारूप हैं, इसलिए ५६३०२=११२६०| ऐसी विराधना भी मन-वचन और काययोग के माध्यमसे होती हैं, इसलिए ११२६०३=३३७८०| और वे भी करण-करावण-अनुमोदन(=त्रिकरण) होने के कारण ३३७८०३=१०१३४०| वे भी अतीतकाल में हुई हैं, वर्तमानकाल में हो रही हैं और भविष्यकाल में होने की संभावना हैं, या तो भूतकालमें हुई हिंसा की निंदा-गर्हा, वर्तमानमें न हो, इस के प्रयत्न रूपमें संवर, और भविष्य में नहीं करने का पच्चक्खाण लेने से = (३ काल) = १०१३४०३ = ३०४०२०| और क्षमा याचना करने की शुभ प्रक्रियामें १) अरिहंत, २) सिद्ध, ३) साधु, ४) देवता, ५) संघ, ६) आत्मा इन ६ की साक्षी होती हैं, इसलिए ३०४०२०६=१८२४१२०
इस तरह क्षमा याचना करने का कार्यक्रम यानी कि मास्टर प्लान| हमारी आत्मा गंगा-प्रवाह की तरह निर्मल है, किन्तु अठारह पापस्थानक की फैक्टरी खोलने से सभी पापों का दूषित कचरा, रसायन और पानी की वजह से यह गंगा गटर समान बन गई है| क्षमापना और आलोचना शुद्धि, ये दो मास्टर प्लान हैं| इन के माध्यम से संवत्सरी पर्यन्त के आठ दिनमें उस गटर को पुनः गंगा बनाने का प्रयत्न करना है| इसलिए आँगनमें नहीं, अंतरमें मैत्र्यादिभावो की रंगोली होनी चाहिये| इस तरह एक साथ दो त्यौहार मनायेंगे, कर्म-कषाय की होली और आत्मामें प्रकाश की दिपावली| पटाखें बाहर नहीं फुटेंगे, अंदर दुर्भावों की लुम्स फटफट फूटकर हवामें घुल जाएगी|
एक बार विद्वानोमें विवाद हुआ कि अमृत कहॉं है ? एक विद्वानने कहा, ‘‘अमृत तो मधुमें है क्योंकि वह मधुर है’’| तब दूसरेंने कहा, ‘‘मधु प्राप्ति करते वक्त मधुकर का दंश सहना पड़ता है| इसलिए अमृत तो लंबे समय के बाद जन्मे पुत्रकी तुटी-फुटी, तोतली बोलीमें है| क्योंकि वह तो मधु से भी ज्यादा मधुर है|’’ तब तीसरे ने कहा- नहीं ! बादमें वही पुत्र बड़ा होकर अशांति उत्पन्न करता है| इसलिए अमृत तो चंद्रमॉं में है, क्योंकि वही शीतलता और शांति को चारों और फैलाता है| उस की बात को काटते हुए चौथे विद्वानने कहा, ‘‘चंद्रमॉं तो कलंकी है| इसलिए अमृत तो समुद्रमें है| इसलिए तो देवोने समुद्रमंथन किया था|’’ पंचम विद्वानने कहा- ‘‘खारे समुद्रमें अमृत कहांसे हो सकता है ? अमृत तो स्वर्ग में है|’’ तब छठे विद्वानने कहा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता| स्वर्गमें भी शांति नहीं है| अमृत तो लक्ष्मी में है| इसलिए तो सभी उसे चाहते हैं|’’ तब सॉंतवा विद्वान बोला- नहीं, नहीं, वह तो माया है माया ! इसलिए ही तो साधुजन उसका परित्याग कर देते हैं| सच में अमृत तो ‘क्षमा’ के दो अक्षर में है, क्योंकि क्षमाके प्रभाव से रोष तोष बन जाता है, युद्धभूमि बुद्धभूमि बन जाती है, सूखा रेगिस्तान हराभरा वन बन जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है, तोपमें फूल खिलते हैं और द्वैष व वैर की ज्वालामें से मैत्री और प्रेम के फ़व्वारे निकलते हैं| इसलिए यह अमृत है, क्योंकि वह सभी को पसंद है|
No comments yet.
Leave a comment