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आलोचना का प्रायश्चित्त किसे दिया जाए?

आलोचना का प्रायश्चित्त किसे दिया जाए?

न हु सुज्झइ ससल्लो जह
भणियं सासणे धुयरयाणं|
उद्धरियसव्वसल्लो सुज्झइ जीवो धुयकिलेसे॥

कर्मरज जिन्होंने दूर कर दी है, ऐेसे परमात्मा के शासन में कहा गया है कि शल्य (छिपाए हुए पाप) सहित कोई भी जीव शुद्ध नहीं होता है| क्लेश रहित बनकर सभी शल्यों को दूर करके ही जीव शुद्ध बनता है| अतः शुद्ध होने के लिए आलोचना अवश्य कहनी चाहिए|

खुद के जीवन में जिस किसी भाव से जान-बूझकर या अनजाने में पाप किए हों, उसी भाव से कपटरहित होकर बालक की तरह गुरुदेवश्री से उन पापों को कह दे| उसे ही प्रायश्‍चित दिया जाता है और वही आत्मा शुद्ध होती है|

परन्तु माया के कारण अमुक पापों को हृदय रूपी गुङ्गा में छुपाकर रखे, उसे केवलज्ञानी जानते हुए भी प्रायश्‍चित नहीं देते तथा छद्मस्थ गुरु भी दो तीन बार सुनें और यदि उन्हें यह ज्ञात हो जाए कि जीव माया के कारण स्वयं के पापों को छिपा रहा है, तो उसे गुरुदेव प्रायश्‍चित नहीं देते और कह देते हैं कि दूसरे के पास प्रायश्‍चित लेना, परन्तु जिस व्यक्ति को ज्ञानावरणकर्म आदि दोषों के कारण पाप याद नहीं आते हो, तो गुरुदेवश्री भिन्न-भिन्न प्रकार से उसको याद करवाते हैं, परन्तु जान-बूझकर पाप छिपानेवाले को याद नहीं कराते| शास्त्र में कहा है कि -

कहेहि सव्वं जो वुत्तो जाणमाणे गुहई|
न तस्स दिंति पायच्छित्तं बिंति अन्नत्थ सोहय॥
न संभरइ जो दोसे सब्भावा न य मायाओ|
पच्चक्खी साहए ते उ माइणो उ न साहइ॥

कोई ओघ-सामान्य ढंग से ऐसे कह दे कि मैंने अनेक पाप किए हैं, सभी का प्रायश्‍चित दे दीजिए और जानते हुए भी अपने दोषों को छुपाये, तो उस व्यक्ति को भी प्रायश्‍चित नहीं दिया जाता, दूसरे गुरु के पास शुद्धि करना ऐसा कह देते हैं| परन्तु एक-एक पाप याद करके कह दे और जो पाप वास्तव में याद न आयेे, उसका ओघ से प्रायश्‍चित मांगे, तो प्रायश्‍चित दिया जाता है| आज तक अनंत आत्माओं ने आलोचना कहने से मोक्ष प्राप्त किया हैं| शास्त्र में कहा है कि -

निट्ठियपापपंका सम्मं आलोइउं गुरुसगासे|
पत्ता अणंतजीवा सासयसुखं अणाबाहं॥

अर्थात् पापरूपी कीचड़ का जिन्होंने नाश किया है, ऐसे अनंत आत्माओं ने गुरु के पास सुन्दर रीति से आलोचना लेकर बाधा से रहित ऐसे अनंत शाश्‍वत सुख को प्राप्त किया है|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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