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आलोचना सब को करनी चाहिए

आलोचना सब को करनी चाहिए

जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स
कहेइ अत्तणो वाहि|
एवं जाणगस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे॥
जिस प्रकार कुशल वैद्य भी स्वयं की व्याधि दूसरों से कहता है, उसी प्रकार प्रायश्‍चित को जानने वाले गीतार्थ आचार्य को भी दूसरे के पास आलोचना करनी चाहिए अर्थात् उपाध्याय-पंन्यास-गणि साधु-श्रावक आदि सब को आलोचना अवश्य करनी चाहिए| आलोचना कहने के सिवाय आत्मा शुद्ध नहीं होती है|

आलोचना न लेने से हानि :- जो अनर्थ जहर से नहीं होता, शस्त्र या तीर से नहीं होता, उससे अनेक गुनी हानि मायाशल्य से अर्थात् अंदर छिपाए हुए पापों से हो जाती है| पाप गुप्त रखने से रूक्मिणी के एक लाख (१०००००) भव हो गये| विष से एक बार मृत्यु प्राप्त होती है, परन्तु पापों को प्रगट नहीं करने से हजारों बार मृत्यु के अधीन होना पड़ता है| शास्त्र में कहा हैं कि -

नवि तं सत्थं व विसं दप्पयुत्तो व कुणई वेतालो |
जं कुणई भावसल्लं अणुद्धरियं सव्वदुहमूलं॥
शस्त्र, विष या अभिमान से क्रोधित वेताल जो हानि नहीं करता, वह हानि सर्व दुःखों का मूल अनालोचित भावशल्य करता है| आलोचना करने वालों को यद्यपि गुरुमहाराज महान व्यक्ति मानते हैं और उसकी पीठ भी थपथपाते हैं, ङ्गिर भी उसके हित के लिए यदि गुरुदेव कोई शिक्षा-वचन कहे, तो भी गुरु के ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए|

आलोचना के पश्‍चात् पश्‍चात्ताप नहीं करना चाहिए; कि ‘‘अरर! यह मैंने क्या किया ? अपने जीवन की सारी कमजोरियॉं स्पष्ट कर दी | अरर ! क्या होगा?’’ इस प्रकार के विचार आने नहीं देने चाहिए, बल्कि आनंद व्यक्त करना चाहिए| शास्त्र में कहा है कि -

अणणुतापी अमायी चरणजुआलोयगा भणिया|
अर्थात् पीछे से पश्‍चात्ताप नहीं करने वाला आलोचक अमायावी और चारित्रयुक्त कहा गया है|

जिस तरह सुकृत करने के बाद पश्‍चाताप नहीं किया जाता, उसी तरह आलोचना कहनी, यह भी एक सुकृत है| इसलिये आलोचना कहने के बाद उस सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिए| पश्चाताप नहीं| स्वयं को आया हुआ प्रायश्‍चित दूसरों को बताये नहीं| आलोचना करने के बाद तथा प्रायश्‍चित लेने के पश्‍चात् ऐसा प्रयत्न होना चाहिए, जिससे वे पाप पुनः न हों क्योंकि पुनः पुनः वे पाप करने से अनवस्था खड़ी हो जाती है| कदाचित् मोहवश पुनः हो जाएँ, तो ङ्गिर से किए हुए पापों की पुनः आलोचना लेनी चाहिए| शास्त्र में कहा है कि -

तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरु उवइसंति|
तं तह आयरियव्वं अणवत्थ पसंगभएण॥
अर्थात् मोक्षमार्ग के जानकार गुरुदेवश्री जो प्रायश्‍चित देते हैं, उसको अनवस्था के भय से उसी प्रकार वहन करना चाहिए| प्रायश्‍चित वहन न करने से पुनः अनायास दूसरी बार पाप हो जाते हैं एवं यह देखकर दूसरे व्यक्ति भी आलोचना-प्रायश्‍चित नहीं करेंगे, वे निर्भय होकर पाप करते रहेंगे, जिससे अनवस्था होगी|

आलोचना नहीं लेने वाला व्यक्ति कदाचित् अनशन भी कर ले, तो भी शुद्ध नहीं होता, परन्तु दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी बनता हैं| पूर्वाचार्यो ने कहा है कि -

जं कुणई भावसल्लं, अणुद्धरियं उत्तमट्ठकालम्मि|
दुल्लहबोहियत्तं अणंतसंसारियत्तं च॥
उत्तमार्थ-अनशन के समय यदि भावशल्य को दूर नहीं करता है, तो अनशन करने वाला दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी बनता है|

खिले हुए ङ्गूल के समान उत्तम मनुष्य जन्म में देव, गुरु और धर्म की सामग्री मिलने पर भी यदि वह व्यक्ति अब आलोचना न ले, तो उसका यह मनुष्य जीवन रुपी ङ्गूल मुरझा जायेगा और जीव को दुर्गतियों में भवभ्रमण करना पड़ेगा| इसलिये आलोचना का प्रायश्‍चित रूपी पानी छिटकते रहना चाहिए| अतः इस पुस्तक का नाम रखा है, ‘‘कहीं मुरझा न जाए|’’ अरे जीव ! तू भव आलोचना ले लेना, अन्यथा यह मनुष्य जीवन का ङ्गूल कहीं मुरझा जायेगा| खिला हुआ ङ्गूल मस्तक आदि शुभ स्थान पर चढ़ता है| यदि मस्तक आदि पर न चढ़ा, तो मुरझाने पर धूल में ङ्गेंक दिया जाता है| रे जीव ! तू भी मुरझाए हुए ङ्गूल की तरह दुर्गतिरूपी धूल में ङ्गेंक दिया जाएगा| अतः हे जीव ! तुझे रेड सिग्नल दिया गया है कि,‘‘कहीं मुरझा न जाए!’’ एक बार भव आलोचना लेने के बाद हर वर्ष वार्षिक आलोचना लेनी चाहिए| ऐसा श्रावक के वार्षिक ११ कर्तव्य में कहा हुआ है| जो हर वर्ष गुरु का योग न मिले, तो जब योग मिले, तब आलोचना कर लेनी चाहिए|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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