कहेइ अत्तणो वाहि|
एवं जाणगस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे॥
आलोचना न लेने से हानि :- जो अनर्थ जहर से नहीं होता, शस्त्र या तीर से नहीं होता, उससे अनेक गुनी हानि मायाशल्य से अर्थात् अंदर छिपाए हुए पापों से हो जाती है| पाप गुप्त रखने से रूक्मिणी के एक लाख (१०००००) भव हो गये| विष से एक बार मृत्यु प्राप्त होती है, परन्तु पापों को प्रगट नहीं करने से हजारों बार मृत्यु के अधीन होना पड़ता है| शास्त्र में कहा हैं कि -
जं कुणई भावसल्लं अणुद्धरियं सव्वदुहमूलं॥
आलोचना के पश्चात् पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए; कि ‘‘अरर! यह मैंने क्या किया ? अपने जीवन की सारी कमजोरियॉं स्पष्ट कर दी | अरर ! क्या होगा?’’ इस प्रकार के विचार आने नहीं देने चाहिए, बल्कि आनंद व्यक्त करना चाहिए| शास्त्र में कहा है कि -
जिस तरह सुकृत करने के बाद पश्चाताप नहीं किया जाता, उसी तरह आलोचना कहनी, यह भी एक सुकृत है| इसलिये आलोचना कहने के बाद उस सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिए| पश्चाताप नहीं| स्वयं को आया हुआ प्रायश्चित दूसरों को बताये नहीं| आलोचना करने के बाद तथा प्रायश्चित लेने के पश्चात् ऐसा प्रयत्न होना चाहिए, जिससे वे पाप पुनः न हों क्योंकि पुनः पुनः वे पाप करने से अनवस्था खड़ी हो जाती है| कदाचित् मोहवश पुनः हो जाएँ, तो ङ्गिर से किए हुए पापों की पुनः आलोचना लेनी चाहिए| शास्त्र में कहा है कि -
तं तह आयरियव्वं अणवत्थ पसंगभएण॥
आलोचना नहीं लेने वाला व्यक्ति कदाचित् अनशन भी कर ले, तो भी शुद्ध नहीं होता, परन्तु दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी बनता हैं| पूर्वाचार्यो ने कहा है कि -
दुल्लहबोहियत्तं अणंतसंसारियत्तं च॥
खिले हुए ङ्गूल के समान उत्तम मनुष्य जन्म में देव, गुरु और धर्म की सामग्री मिलने पर भी यदि वह व्यक्ति अब आलोचना न ले, तो उसका यह मनुष्य जीवन रुपी ङ्गूल मुरझा जायेगा और जीव को दुर्गतियों में भवभ्रमण करना पड़ेगा| इसलिये आलोचना का प्रायश्चित रूपी पानी छिटकते रहना चाहिए| अतः इस पुस्तक का नाम रखा है, ‘‘कहीं मुरझा न जाए|’’ अरे जीव ! तू भव आलोचना ले लेना, अन्यथा यह मनुष्य जीवन का ङ्गूल कहीं मुरझा जायेगा| खिला हुआ ङ्गूल मस्तक आदि शुभ स्थान पर चढ़ता है| यदि मस्तक आदि पर न चढ़ा, तो मुरझाने पर धूल में ङ्गेंक दिया जाता है| रे जीव ! तू भी मुरझाए हुए ङ्गूल की तरह दुर्गतिरूपी धूल में ङ्गेंक दिया जाएगा| अतः हे जीव ! तुझे रेड सिग्नल दिया गया है कि,‘‘कहीं मुरझा न जाए!’’ एक बार भव आलोचना लेने के बाद हर वर्ष वार्षिक आलोचना लेनी चाहिए| ऐसा श्रावक के वार्षिक ११ कर्तव्य में कहा हुआ है| जो हर वर्ष गुरु का योग न मिले, तो जब योग मिले, तब आलोचना कर लेनी चाहिए|
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