संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ
संयम और तप से आत्मा को भावित (पवित्र) करता हुआ साधक विहार करता है
राग-द्वेष, विषय-कषाय से कलुषित आत्मा किसी शरीर का आश्रय लेकर इस विशाल संसार में भटकती रहती है| उसका यह भवभ्रमण तब तक नहीं मिट सकता, जब तक उसका वह कालुष्य नहीं मिट जाता, जो उसे इस प्रकार भटकने को विवश करता रहता है|
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