क्षमापना तो पर्वाधिराज के प्राणसमान हैं| जिस तरह हज़ार कि.मी. रेल की पटरी से एक इँच पटरी भी यदि तुट जाये, तो ट्रेन लुढ़क जाती है उसी तरह मनमें एक जीवके प्रति भी यदि द्वेष का अंश रह गया, तो आपकी आराधनाकी पूरी ट्रेन ही लुढ़क जायेगी| जिस तरह कारमें आगे देखनेवाला अकस्मात से बच जाता है, ठीक उसी तरह भूतकाल को भूलकर जो व्यक्ति भविष्यमें आगे बढ़ना चाहता है, वह ही दुर्गतिओंसे बच सकता है| स्वयं की तरह उपवासी जानकर उदयन राजाने कैदी बनाये हुए चंडप्रद्योत राजाको साधर्मिक के नाते से क्षमा प्रदान की और उनका राज्य भी वापस दे दिया| इसलिए जो क्षमा प्रदान कर सकता है, वही यथार्थ साधर्मिक भक्ति कर सकता है| क्रोध और द्वेष के मार्ग से वैरभाव तक पहुँचा हुआ सिंह का जीव किसान के भवमें गौतमस्वामी से प्रतिबोध हुआ लेकिन जिसके सान्निध्य मात्रसे सांप-नेवला जैसे जातीय वैरी प्राणिओं भी जातिवैर का त्याग कर देते थे, ऐसे प्रशमरसमग्न श्री भगवान महावीरस्वामी को देखते ही वैरभाव से साधुधर्म को त्याग कर भाग गया| यह प्रभाव है वैरभावका|
कॉंटे देखनेवालो को जिस तरह गुलाब की सुवास नहीं मिलती, ठीक उसी तरह अन्य की भूल को देखनेवाला कभी भी अन्य के प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकता|
एक सरदारजी के घर की दिवार पर किसी ने लिखा, ‘‘पढ़नेवाला पागल है’’ पढ़कर सरदारजीने आवेश में आकर दिवार से उस लिखाई मिटाकर लिख दिया कि ‘‘लिखनेवाला लल्लु है !’’
सरदारजी को क्या कहना ? स्वयं ही पढ़कर पागल और लिखकर लल्लु साबित हुए| हम भी सरदारजी से कुछ कम नहीं हैं क्योंकि हम भी अन्यके कूड़े समान दोषों को याद रखकर अपने दिमागको कचरापेटी बना देते हैं और इसतरह अन्य के दोषों को पढ़ने वाले पागल बनते हैं| बादमें आवेश के कारण क्षमा जैसे अलङ्कारो को फेंक देने के माध्यम से, अन्य के प्रति अनुचित आचरण करके गलत आचरण रूप लिखने वाले लल्लु बन जाते हैं|
जो नम्रतासे अपनी भूल की क्षमा याचना नहीं कर सकता, वह सुखे साग जैसा सख्त होने से मुर्दा समान है और जो अन्य की भूल पर क्षमा प्रदान नहीं कर सकता वह दुनिया का सबसे बड़ा कंजूस है, जो स्वयं के घरमें ही स्वयं की कब्र खोदता है|
भगवान महावीर स्वामीकी प्रथम शिष्या चंदनबाला ने अपनी शिष्या मृगावतीजी को, शाम के समय पर सूर्यास्त के काफी समय बाद अपने स्थान पर आने के कारण डॉंट दी कि ‘‘आप जैसी कुलीन साध्वी को इस तरह देर से आना उचित नहीं है|’’ तब मृगावतीजीने इनमें से एक भी बातों का विचार तक नहीं किया कि –
१) सूर्य-चंद्र भगवान के पास मूलरूप से आये थे इसलिए कब सूर्यास्त हुआ और इतनी देर हो गई है इन बातों का मुझे कुछ ध्यान ही न रहा|
२) मैं अन्य कोई स्थान पर तो नहीं थी| मैं तो परमात्मा के समवसरण में ही थी न ?
३) जब आप स्वयं समवसरण से लौटे, तब क्या मुझे भी बुलाने का आपका फर्ज नहीं था? मैं आपकी शिष्या ही हूँ, गुरुणी के रूपमें आप अपनी फर्ज को चुक गये और डॉंट मुझे देते हो ?
४) क्षमायाचना करने के बाद भी निद्रावश चंदनबाला ने मृगावतीजी को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया, तब ‘‘मैं क्षमा-याचना कर रही हूँ फिर भी आप जवाब नहीं देते| क्षमा प्रदान नहीं करते तो अब मुझे भी क्या परवाह है?’’ मुझसे कौनसा ऐसा बड़ा अपराध हो गया है कि आप क्षमा तो क्या, जवाब देने को भी तैयार नही है ?
५) मैंने तो क्षमा याचना कर ली… अब मुझे जवाब मिला नहीं, क्षमा प्रदान नहीं की तो फिर गुरुजी की इच्छा ! अब मैं क्या कर सकती हूँ ?
उपर्युक्तमें से कोई भी प्रकार की विचारधारामें यदि मृगावतीजी फँस गई होती तो केवलज्ञान कितना दूर रह जाता ? देर से आने की भूल तो मैंने की है, अतः गुरुमहाराज का डॉंटने का अधिकार है | मेरी वजह से ही गुरुमहाराज को अप्रसन्नता और अधृति हुई, यही मेरा सबसे बड़ा अपराध है| मुझे क्षमा प्रदान न करने का कारण यह हो सकता है कि गुरुमहाराज के दिलमें ठेस पहुँची होगी, या तो गुरुमहाराज निद्रावश हो गये होंगे| परन्तु जब तक गुरुमहाराज मेरे मिच्छामि दुक्कडम् का स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक तो मैं क्षमा-याचना करती ही रहुँगी और तब तक मैं इस अपराधबोध से मुक्त नहीं हो सकुँगी| बस ऐसी ही कोई शुभ विचारधारा मृगावतीजी के मनमें चलती होगी, इसलिए तो मृगावतीजी ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और बादमें उनके प्रभाव से, ‘‘केवलज्ञानी को डॉंट देकर आशातना हो गई’’ ऐसे पश्चाताप के भावमें आने से चंदनबाला को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई|
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