कर्तव्य पॉंचवॉं – चैत्यपरिपाटी
जब अन्य जीव अपना अस्तित्व बनाएँ रखने के लिए प्रयत्नशील हैं, तब मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खिलाने-विकसित करने एवं सहेजने-संवरने के लिए दौड़ रहा है| सचमुच तो परमात्मारूप करुणासागरमें गंगाकी तरह घुलकर अस्तित्व और व्यक्तित्व दोनों को विलीन कर देना है|
सम्यक्त्व की निर्मलता के लिए भिन्न-भिन्न चैत्यों (जिनालयों) को जुहारना चाहिए| जिस तरह गहने की शौक़ीन स्त्री ज्यादा गहने देखकर ज्यादा खुश होती है उस तरह परमात्मदर्शन के शौक़ीन श्रद्धालु जैसे जैसे ज्यादा परमात्मा के दर्शन करते हैं वैसे वैसे ज्यादा ही आनंदित हो जाते हैं| भावपूर्वक परमात्मदर्शन करने से सम्यक्त्व स्थिर, द्रढ और निर्मल बनता है| इस भवमें भिन्न भिन्न जिनालयों में दर्शनके संस्कार दृढ़ किये होंगे, तो देवलोकमें जाने के बाद भी शाश्वत जिनालयों के दर्शन के लिए जाने की इच्छा होगी अन्यथा रत्न और अप्सराओंको देखने में ही देवभव विफल हो जायेगा|
पूज्य आचार्यदेव श्री धर्मजित सूरीश्वरजी महाराज चैत्यपरिपाटी के बहुत शौकीन थे| मुंबई-अहमदाबाद-पाटन इत्यादि जो भी शहरमें ठहरते थे, उस शहर के सभी जिनालयों को हररोज सुबह में थोड़े थोड़े करके जुहारते थे| उन शहरो में ऐसी चैत्यपरिपाटी तो अनेक बार हो जाती थी| छोटे पंचधातुके भगवान के दर्शन करने के लिए भी पॉंच मंजिल तक चढ़ जाते थे| विहारमें अगल-बगल के गॉंवमें जिनालय है ऐसी बात सुनते ही वे तुरंत दर्शन करने चले जाते थे| पॉंच-सात किलोमीटर का विहार १२-१४ किलोमीटर जितना हो जाता था| चैत्यपरिपाटी के ऐसे शौक का कारण देते हुए पूज्यश्रीने कहा था, ‘‘इस साधुपन का पालन करने से अगले भवमें प्रायः देवलोक निश्चित है, यदि वहॉं जिनालयों को जुहारने के संस्कार नही होंगे तो देवी के नृत्यमें मोहित हो जागे से बादमें दुर्गतिमें पटक जायेंगे| इसलिए असंख्य शाश्वत जिनालयों को जुहारने के संस्कार को आत्मसात् करने के लिए अभी से ही चैत्यपरिपाटी की आदत डाली है|’’
राग-द्वेष का जहर प्रभु-दर्शन से दूर होता है| अरे ! प्रभु के निर्वाण बाद संग्रह की गई दाढ़ाओंके अभिषेक जलके छंटकाव मात्र से युद्ध करने वाले दो इन्द्र का कषाय दूर हो जाता है और दोनों शांत हो जाते हैं|
वंदना पापनिकंदना…. अरिहंत को की हुई वंदनाएँ अंतरायभूत पापोंको नष्ट करके वांछित की प्राप्ति करा देती हैं| प्रभु वीर पधारें हैं यह सुनकर मेंढ़क बना हुआ नंद मणियार का जीव जातिस्मरण ज्ञान पाकर प्रभु को वंदन करने की भावनासे तालाबमें से निकलकर चलने लगा| तब श्रेणिक की सेनाके घोड़े की चपेटमें आकर उसकी मृत्यु हो गई| फिर भी मात्र वंदनाकी भावनासे वह पशुगति के पापसे मुक्त होकर देवलोकमें समृद्धिवान देव बन गया|
जीव को आखरी शरण तो अरिहंतका ही है| विश्वविजय प्राप्त करने के लिए निकलते वक्त नेपोलीयनने जिस सेंट हेलिके टापु पर चौकड़ी लगाई थी, वह टापु ही आखिरमें मरते वक्त आसरा बना था| भले आज हम प्रभु को भूल जाये, किन्तु आखिर तो उनके शरणमें जाने से ही समाधि मिलेगी| तो फिर परमात्मा के शरणमें आजसे ही क्युँ न चले जाये ?
जिस प्रभुकी आकृतिमात्र के दर्शन से स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्य नरकगामी न बनकर देवगति में जाते हैं, जिस परमात्ममूर्ति के दर्शन मात्रसे अनार्यदेशमें जन्म लेने वाले आर्द्रकुमार को जातिस्मरणज्ञान और धर्म की प्राप्ति हुई थी| ऐसे परमात्मा का दर्शन हमारे सभी दुरितोंका नाश करता है|
रागी-द्वेषी का दर्शन अमंगलभूत है| ‘सुबहमें यदि सबसे पहले कुम्हार के दर्शन हो जाए तो उस दिन भोजनादि की प्राप्ति नहीं होती|’ इस बात की राजाने परीक्षा की| स्वास्थ्य बिगडने के कारण उस दिन राजा को भोजनादि नहीं मिला| अतः बात सच लगी और राजाने कुम्हार को फांसीकी सजा जाहिर की| तब कुम्हारने कहा, ‘‘मेरे दर्शन से आपको सिर्फ भोजनादि नहीं मिला, किन्तु सुबहमें सबसे पहले आपके दर्शनसे मुझे सीधी मौत मिल रही है|’’ कुम्हार की ऐसी बात सुनते ही राजाने फॉंसी की सजा माफ कर दी| बात यह है कि रागी-द्वेषीके दर्शन, राग और द्वेष को उत्पन्न कर अमंगलभूत बनते हैं| वीतराग के दर्शन से जीवन मंगलमय बन जाता है| सात दिन तक किये हुए उपवास के बाद आँठवें दिन प्रभु दर्शन की प्राप्ति होने से देवपाल को सात दिनमें राज्य मिला| आगे तीर्थंकर बनकर धर्मराज्य की प्राप्ति करके बादमें मोक्षराज्य की प्राप्ति करेंगे|
चंडकौशिक जैसे द्वेषी-दुष्ट-दुर्जनों पर भी सतत करुणाभाव से जिनका खून भी दूध बन गया था ऐसे प्रभुके दर्शन से, जो पलभरमें-अपनों पर भी-बिलकुल मामूली बातोमें भी करुणा छोडकर कठोर आचरण करता है, जिसका खून तीव्र द्वेष से लाल और ईर्ष्या-कठोरता-असूया से जलकर तुरंत ही काला पडता है ऐसे हमारे हृदयमें भी करुणाभाव के कुछ अंकुरे फूट सकते हैं|
क्रोधसे चमरेन्द्र पर वज्र छोडने के बाद शक्रेन्द्रको ध्यानमें आया कि उसने परमात्मा महावीर का शरण स्वीकार किया है| अवधिज्ञानसे परमात्मा महावीर के दर्शन मात्रसे शांत बने हुए शके्रन्द्रने तुरंत ही पीछे दौड़कर वज्र को पकड लिया और चमरेन्द्र को माफ कर दिया|
अलग-अलग टुकडों में बिखरे हुए आगे की ओर चित्रित दुनिया के नकशे को जोड़ने के लिए पीछे की ओर चित्रित परमात्मा के चित्रको जोड़ दो| परमात्मा का अखंड चित्र यदि आपके हृदय में तैयार हो गया तो दुनिया के तमाम जीवों के साथ अर्थात् पूरी दुनिया के साथ आपकी मैत्री जमेगी|
वृद्धा स्त्रीको अपने मरे हुए पुत्र जैसे ही दिखाई देने वाले एक्टर क्लार्क गेबल के चलचित्रों को देखने की व्यवस्था थियेटर मेनेजर ने करवाई| बदले में वृद्धाने वसियत बनाकर मेनेजर को दस लाख डोलर का पुरस्कार दिया| पुत्रके दर्शन कराने का यह इनाम, तो निगोद से लेकर निर्वाण तक के सभी जीवभेद, संसारका स्वरूप और मोक्षमार्ग को बताने वाले भगवान को हम चैत्यपरिपाटी के माध्यम से नये और अच्छे अंगलूंछन, सुवासित धूपसली, उत्तम कलश इत्यादि सामान्य सामग्री भी अर्पण नहीं करेंगे ? उस सामग्री के माध्यमसे भिन्न-भिन्न जिनालयो में होती परमात्मपूजा के हिस्सेदार बनने का सौभाग्य छोड़नेवाला मूर्ख माना जायेगा| एक भाई को ऐसी आदत थी कि हररोज शामको जब बहुत लोग नहीं होते तब अलग-अलग जिनालयों में दर्शन करने के लिए जाना, साथमें दीया, धूपदानी, अंगलूंछण इत्यादि नई सामग्रीयॉं भी लेकर जाना | जिनालयमें से पुरानी सामग्री उठाकर नई सामग्रियॉं रखकर परमात्मभक्ति करना | बाद में पीढ़ी में जाकर पुरानी चीजों को जमा करवा देते थे| यज्ञके स्तंभ के नीचे जो शांतिनाथ परमात्मा की प्रतिमा थी उसका अनिच्छासे भी दर्शन करानेवाले याज्ञिक पुरोहित को शय्यंभव ब्राह्मणने आनंदित होकर यज्ञकी लाखों की सामग्री भेंट दे दी|
‘‘देरे जावा मन करे, चोथतणुं फल पावे रे’’ जिनालय जाने का मन करने मात्रसे चोथ-उपवास का फल मिलता है, और बादमें कदम-कदम पर दस गुना फल बढ़ता है, तो जोगींग के लिए घुमने की मूर्खता को छोड़कर रोज़ चैत्यपरिपाटी करने का मन क्यों नहीं होगा ?
आजकल तीर्थयात्रा की ओर रुचि बढ़ी है| मगर आप भागदौड़ न करें| हर एक तीर्थमें स्थिरता करके पूजा-स्नात्र इत्यादि का लाभ लेना चाहिए और कम से कम हर तीर्थ के मूलनायक परमात्मा का नाम डायरीमें नोट करें | बीमारी-बुढ़ापा और फुरसत के समय में उन सभी तीर्थोकी भावयात्रा करें | इस तरह घरबैठे चैत्यपरिपाटी करके उत्कृष्ट पुण्य की कमाई करें |
‘‘सकल तीर्थ वंदु कर जोड’’ सूत्रसे चौदह राजलोक के जिनालयो को वंदन करनेवाला व्यक्ति अपने ही नगर या गॉंव के जिनालयों के दर्शन करने न जाए यह ताज्जुब की बात नहीं ?
सीनेमा-पीकनीक जैसे सामुदायिक पापोंको मिलाकर दुषम बने हुए इस कालमें सामुदायिक चैत्यपरिपाटी जैसे धर्मकार्य ही कुछ अच्छेपन की अनुभूति करवायेंगे|
एक ने दूसरे से कहा, ‘‘मैं कल पत्नी के साथ चौपाटी गया था| पत्नीकी आँखमें कंकरी गई| उसे डोक्टर के पास निकलवाने में तो रू. १५ की उठ गई| तब दूसरेने कहा, ‘‘आप तो सस्ते में छूट गये| मेरी पत्नी की आँखमें तो दूसरी स्त्रीका पहना हुआ नेकलेस चला गया| मेरी तो रू. १५०० की उठ गई|’’
हॉं, पत्नीके गहना के नाम पर आप हज़ारो-लाखो रू. खर्च कर के सारे जगतमें दिखावा करनेसे अन्योंके ईर्ष्यादिमें निमित्त बनने रूप आश्रव की पुड़ियों की प्रभावना होगी| जब कि उसी रकमसे भव्य चैत्यपरिपाटी इत्यादि द्वारा प्रभुभक्ति करने से आत्मकल्याण तो होता है, साथ साथ शासनप्रभावना भी होती है|
विज्ञापन और प्रचार के इस युगमें तो ऐसे कार्यक्रम द्वारा हजारों लोगों के हृदयमें धर्मभावना-अहोभाव और सुलभबोधिता के बीज बोने में ही अर्थ की (धन-संपत्ति की) यथार्थ सार्थकता है|
युगप्रधान आचार्य वज्रस्वामीने हुताशन उद्यानमें से २० लाख पुष्प और श्रीदेवी के पास से एक लाख पंखडीवाला महाकमल को लाकर श्रावकों के द्वारा प्रभुभक्ति करवा कर ऐसी शासनप्रभावना करवाई कि उस नगर के बौद्ध धर्मी राजाने जैन धर्म का स्वीकार कर लिया|
नवग्रह, दस दिक्पाल, १६ विद्यादेवी, करोड देव-देवी, लब्धियॉं और सिद्धियॉं अरे ! जगत के श्रेष्ठतम पुद्गल परमाणु भी जिनके शरणमें गये हैं, ऐसे परमात्मा के शरण में जाने से ही हमारा आत्मकल्याण निश्चित होता है|
परमात्मवंदन की चैत्यपरिपाटी के साथ साथ उस गाम-नगर या भिन्न-भिन्न उपाश्रयोंमें स्थित साधु-साध्वी भगवंतो को भी सबहुमान वंदन करना चाहिए और ‘‘धर्मलाभ’’ का सर्वकल्याणकारी आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए|
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