post icon

आत्मा का स्वाभाविक धर्म – सम्यक्त्व

आत्मा का स्वाभाविक धर्म   सम्यक्त्व
सम्यक्त्व का अर्थ है, निर्मल दृष्टि, सच्ची श्रद्धा और सच्ची लगन| सम्यक्त्व ही मुक्ति-मार्ग की प्रथम सीढ़ी है| जब तक सम्यक्त्व नहीं है, तब तक समस्त ज्ञान और चारित्र मिथ्या है| जैसे अंक के बिना बिन्दुओं की लम्बी लकीर बना देने पर भी, उसका कोई अर्थ नहीं होता, उससे कोई संख्या तैयार नहीं होती, उसी प्रकार समकित के बिना ज्ञान और चारित्र का कोई उपयोग नहीं, वे शून्यवत् निष्फल है| अगर सम्यक्त्व रूपी अंक हो और उसके बाद ज्ञान और क्रिया (चारित्र) हो तो जैसे एक के अंक पर प्रत्येक शून्य से दस गुनी कीमत हो जाती है, वैसे ही ज्ञान और चारित्र-दान, शील, तप-जप आदि मोक्ष के साधक होते हैं| मुक्ति के लिये सम्यग्दर्शन की सर्वप्रथम अपेक्षा रहती है| सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्त्व आता है| इसीलिये दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों ही भाव सम्यक्त्व होते हुए भी सम्यक्त्व शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में ही रूढ़ हो गया है| यह सम्यग्दर्शन की प्रधानता सूचित करता है|

सम्यक्त्व आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, परन्तु अनादि काल से दर्शन मोहनीय कर्म के कारण आत्मा का यह गुण ढ़क गया है| जैसे ही दर्शन-मोहनीय कर्म दूर हुआ कि सम्यक्त्व गुण इस प्रकार प्रकट हो जाता है, जैसे बादलों के दूर होने पर सूर्य| इस प्रकार दर्शन-मोहनीय के दूर होने को और सम्यक्त्व गुण प्रकट होने को समकित की प्राप्ति होना कहा जाता है| समकित की प्राप्ति दो तरह से होती है : निसर्ग से और अधिगम से| तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है – ‘तन्नि सर्गादधिगमाद्’| जो सम्यक्त्व बिना गुरु आदि के उपदेश से होता है वह ’’निसर्गज’’ और जो शास्त्र वाचन आदि से हो वह ’’अधिगमज’’ कहलाता है|

सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम

जैसे बड़े वेग से बहने वाली नदी में एक पत्थर का टुकड़ा दूसरे पत्थरों और बड़ी बड़ी चट्टानों से टकरा टकरा कर गोल-मोल हो जाता है, उसी प्रकार यह जीव नाना-योनियों में जन्म-मरण कर और शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहन करता हुआ कर्मों की निर्जरा करता है| उसके प्रभाव से उसे पांच प्रकार की लब्धियॉं प्राप्त होती हैं|

1. क्षयोपशम लब्धि
अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए संयोगवश ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग (रस) को प्रति समय अनन्त गुणा कम करना क्षयोपशम-लब्धि है|

2. विशुद्धि लब्धि
इस प्रकार अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग के मन्द होने से शुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं| यह विशुद्धलब्धि है|

3. देशना लब्धि
विशुद्धि लब्धि के प्रभाव से तत्त्वों के प्रति रुचि उत्पन्न होती है, और उन्हें जानने की इच्छा होती है – यह देशना लब्धि है|

4. प्रयोग लब्धि
देशना लब्धि प्राप्त करने के बाद जीव अपने परिणामों को शुद्ध करता है| आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों को कुछ कम एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले कर लेता है और कर्मों के तीव्र अनुभाग को मन्द करता है-यह प्रयोग लब्धि है|

5. करण लब्धि
आत्मा के परिणाम को करण कहते हैं| करण तीन हैं| यथा प्रवृत्ति करण, अपूर्व करण और अनिवृत्ति करण|
i. यथा प्रवृत्ति करण – प्रयोग लब्धि से सात कर्मों की स्थिति को कुछ कम एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम की कर देनेवाले आत्मा के परिणामों में विशेष शुद्धि होना यथा प्रवृत्ति करण कहलाता है| यह करण अभव्य जीवों को भी होता है|

ii. अपूर्व करण – यथा प्रवृत्ति करण के बाद परिणामों में और विशेष शुद्धि होती है| जिस कारण अनादि कालीन राग-द्वेष की बड़ी मजबूत ग्रंथि को भेदने की शक्ति प्राप्त कर लेता है| और ग्रंथि भेद कर भी डालता है| ऐसा पहले कभी नहीं किया अत: इसे अपूर्व करण कहते हैं|

iii. अनिवृत्ति करण – अपूर्व करण के बाद और विशेष शुद्धि होना अनिवृत्ति करण कहलाता है| इस करण के करने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है| सम्यक्त्व तीन हैं|

a. औपशमिक सम्यक्त्व
यथा प्रवृत्ति करण से कर्मों की कुछ कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम की स्थिति करने पर अपूर्व करण में ग्रंथि-भेद करने पर और मिथ्यात्व का उदय न होने पर अनिवृत्ति करण द्वारा प्रथम जो सम्यक्त्व होता है, वह औपशमिक समकित है| जैसे -

उसरदेसं दड्ढेल्लय विज्झइ वणदवो पप्प
इयमिच्छत्ताणुदए उवसम-सम्मं लहइ जीवो

जिस प्रकार ऊसर और दग्ध भूमि को प्राप्त होकर दावाग्नि स्वयमेव-अपने आप बुझ जाती है, उसी तरह मिथ्यात्व के उदय में न आने पर जीव उपशम सम्यक्त्व पाता है|

अथवा अनंतानुबन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ तथा समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियॉं ऐसे सात प्रकृतियों के उपशम से होने वाला समकित औपशमिक कहलाता है|

b. क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
उदय-प्राप्त मिथ्यात्व मोहनीय का क्षय और उदय में नहीं आये हुए मिथ्यात्व का उपशम और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से होने वाला सम्यक्त्व क्षयोपशमिक कहलाता है|

c. क्षायिक सम्यक्त्व
पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाला क्षायिक है| क्षायिक समकित अप्रतिपाती है, अर्थात् एक बार आ जाने पर फिर नहीं जा सकता है| शेष दो आने पर पुन: जा भी सकते हैं| जिसने समकित का स्पर्श कर लिया वह संसार को परिमित कर देता है| और अर्द्ध पुद्गल-परावर्त्तन काल में अवश्य मोक्ष जाता है|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
Did you like it? Share the knowledge:

Advertisement

3 Comments

Leave a comment
  1. sudhir
    जून 24, 2013 #

    The discuttion above is of much concern even for common people, but the language of the above title is so “klisth” old type hard that we {commom people) are not understand it fully.

  2. Kiran gandhi
    अक्तू॰ 4, 2019 #

    प्रत्यक्षात अनुभुति की धर्म्यध्यान

  3. Kiran gandhi
    अक्तू॰ 4, 2019 #

    प्रत्यक्षात अनुभुति मैं हूँ.

Leave a Reply

Connect with Facebook

OR